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शिक्षण विधि का अर्थ और परिभाषा सम्पूर्ण निचोड़ (Teaching Methods In Hindi)

इस पोस्ट में आप Teachings के Methods को Teaching Methods in hindi में पढ़ोगे teaching methods को हम हिंदी में शिक्षण विधि कहते हैं।

छात्र जीवन में प्रत्येक व्यक्ति के साथ ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब हम यह चर्चा करते हैं कि यह शिक्षक अच्छा नहीं पढ़ाता है या अच्छा पढ़ाता है कभी-कभी कोई शिक्षक अच्छी से अच्छी तैयारी अनेक सहायक सामग्रियों के प्रयोग नवीन पाठन विधि के प्रयोग आदि करने के बावजूद भी अच्छा नहीं पढ़ा पाता इसके विपरित दूसरा अध्यापक थोड़ी बहुत तैयारी के बाद भी सफलता से पढ़ा देता है ऐसा क्यों होता है? यदि हम इस प्रश्न पर विचार करें तो इसका परिणाम पर अवश्य पहुंचेंगे ।


शिक्षण विधि का अर्थ और परिभाषा सम्पूर्ण निचोड़ (Teaching Methods In Hindi)

शिक्षण विधि का अर्थ और परिभाषा सम्पूर्ण निचोड़ (Teaching Methods In Hindi)
शिक्षण विधि का अर्थ और परिभाषा सम्पूर्ण निचोड़ (Teaching Methods In Hindi)

शिक्षण विधी (teaching methods) का मतलब यह होता है कि शिक्षक कुछ ऐसी अलग अलग क्रियाओं से छात्रों को पढ़ाई के प्रति उत्सुकता पैदा करने में मदद करता है, एक शिक्षक को शिक्षण विधी (teaching methods) को कुछ सोपान (steps) में बाँट कर छात्रों को पढ़ाया जाता है, जिसे अच्छे तरीक़े से छात्रों को कठीन से कठीन टॉपिक्स को आसान करना शिक्षक का कार्य है।

शिक्षण एक कला है, जिसमें हर एक शिक्षक निपुर्ण नहीं होता है जो शिक्षक जितना अधिक इस कला में निपुर्ण होगा उतना ही अधिक सफल होगा छात्रों का प्रिय एवं  एक अच्छा शिक्षक कहलाएगा अतः एक सफल शिक्षक के लिए इस कला में निर्गुण होना अत्यंत आवश्यक है ।

शिक्षण विधि का अर्थ एवं परिभाषा

लक्ष्य शिक्षा के होते हैं जबकि उद्देश्य शिक्षण के होते हैं

शिक्षण उद्देश्य शिक्षार्थियों में वांछित व्यवहारगत परिवर्तन की उपलब्धि हेतु निर्धारित किए जाते हैं । यह उद्देश्य मापन योग्य होते हैं । इनका स्वरूप संकुचित होता है । इनका आधार मनोवैज्ञानिक होता है । उद्देश्य विभिन्न विषयों, शिक्षण इकाइयों तथा पाठों के विशिष्ट करण सहित भिन्न-भिन्न होते हैं

शिक्षण एक त्रियामी प्रक्रिया है, जिसमें शिक्षक और छात्र, पाठ्यक्रम के माध्यम से अपने स्वरूप को प्राप्त करते हैं। अर्थात किसी विषय वस्तु को माध्यम बनाकर शिक्षक एवं शिक्षार्थी के बीच विचारों के आदान-प्रदान या परस्पर अंतःप्रक्रिया को ही हम शिक्षण कहते हैं.

शिक्षण के उद्देश्य उन परिवर्तनों की ओर संकेत करते हैं जो हम बच्चों में उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं बी एस ब्लूम के अनुसार शैक्षिक उद्देश्य केवल पाठ्यक्रम की रचना एवं अनुदेशन का ही निर्देशन नहीं करते बल्कि मूल्यांकन तकनीकों की रचना एवं उनके प्रयोग का विस्तृत विशिष्ट करण भी प्रस्तुत करते हैं ।

शिक्षण विधि की विशेषताए एवं शिक्षण विधी के महत्व

1 यह शिक्षण प्रक्रिया को दिशा प्रदान करते हैं 

2 शिक्षण से शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति होती है।

3 इसके द्वारा शिक्षण प्रक्रिया क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित रूप से आयोजित करने में सहायता मिलती है 

4 शिक्षण सीखने के नियमों पर आधारित होता है।

5 इसके द्वारा शिक्षण प्रक्रिया के प्रत्येक स्तर पर यह ज्ञात करना संभव होता है कि शिक्षार्थी शिक्षण प्रक्रिया से किस सीमा तक लाभान्वित हो रहे हैं

6 शिक्षण बालक की क्रियाओं से पूर्ण होता है।

7 यह प्रेरणात्मक एवं सृजनात्मक होता है।

8 यह व्यक्ति की विभिन्नताओं पर आधारित होता है।

9 यह चयनात्मक होता है।

10 यह सहानुभूतिपूर्ण होता है और बालकों के सहयोग से आगे बढ़ता है।

11 यह पूर्णरूप से व्यवस्थित एवं जनतान्त्रिक होता है।

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शिक्षण विधियाँ निम्नलिखित हैं –


(1) मॉण्टेसरी विधि / शिशु शिक्षण प्रणाली

प्रतिपादन- मैडम मॉटेसरी (इटली)

• कथन- बालकों की निसर्गसिद्ध अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ही मेरी शिक्षण प्रणाली का मूल आधार है। 

• स्तर- पूर्व प्रारम्भिक कक्षाओं के लिए

• इसके अनुसार लिखना पढ़ने की अपेक्षा सरल है। भाषा की शिक्षा लिखने से प्रारम्भ होनी चाहिए। पहले बालक पेंसिल या कलम पकड़ता है। फिर उपकरणों की सहायता से वह मांसपेशियों की साधना करता है और धीरे-धीरे आड़ी तिरछी रेखा खिचवाई जाती है।


• रेगमाल कागज पर कटे अक्षरों पर अंगुली फेरता है।

• अक्षरों की आकृति में स्याही या खड़िया भरता है।

• लिखना सीखने के बाद पढ़ना सीखने में 15 दिन लगते है 

• यह पद्धति बालक को स्वतन्त्रता प्रदान करता है।

• इसमें व्यक्ति विकास पर ध्यान रखा जाता है।

• इसमें खेल व क्रिया को सर्वोत्तम साधन माना।

· ज्ञानेन्द्रियो की शिक्षा पर विशेष बल।


इस प्रणाली में लिखने की शिक्षा पढ़ने की शिक्षा से पहले दी जाती है। लिखने की शिक्षा इस प्रणाली की प्रशंसनीय विशेषता है। लगभग 4 वर्ष की अवस्था एक शिशु अंगुलियों के संचालन में कुछ नियंत्रण प्राप्त कर लेता है। इसी समय कुछ खेलों एवं क्रियाओं के माध्यम से वह लिखना सीखता है। लिखने की शिक्षा में तीन क्रियाएँ आवश्यक है-


(i) कलम, पेंसिल आदि पकड़ने का अभ्यास।

(ii) अक्षरों का स्वरूप समझने का अभ्यास।

(iii) उच्चारण द्वारा अक्षरों का ज्ञान।


सीमाएँ-

• मॉण्टेसरी पद्धति व्यय साध्य है। यह भारत जैसे देश के लिए उपयुक्त नहीं है।

• केवल इन्द्रियों के प्रशिक्षण पर बल देती है।

• अव्यावहारिक व अमनौवैज्ञानिक है।

• पढ़नें की अपेक्षा लिखना सरल है। यह बात भी विवादास्पद है।


(2) किण्डरगार्टन पद्धति / बालोद्यान पद्धति

प्रतिपादन- शिक्षाशास्त्री फ्रेडरिक विल्हम ऑगस्त फ्रोबेल


• पुस्तक- एजुकेशन ऑफ मैन

• स्तर- 4 से 8 कक्षा तक (उचित विधि)


• फ्रोबेल के अनुसार स्कूल एक बाग है। अध्यापक एक माली है। बच्चे (पौधे) किंडर के समान है।

• फ्रोबेल ने खेल द्वारा शिक्षा, स्वत: क्रिया द्वारा शिक्षा एवं एकता के सिद्धान्त पर बल दिया।

• शिक्षा के लिए उन्होंने 20 उपहारों पर प्रयोग किया।


• फ्रोबेल के अनुसार बालक को पहले आत्म प्रकाशन का अवसर देना चाहिए जो खेल द्वारा संभव है। इसके बाद समवेत गीत, बाल गीत, क्रिया के माध्यम से उस भाषा की शिक्षा दी जाए।


• शिशुओं के सम्मुख व्यवस्थित रूप से ऐसी शिक्षण-सामग्री प्रस्तुत करनी चाहिए जो उनकी मानसिक शक्तियों को प्रकाशित कर सके, उनकी क्रिया शक्ति को अनुप्राणित और उठोरित कर सके एवं आंतरिक संगठन तथा एकता का निर्माण कर सके। इस दृष्टि से उसने अनेक शैक्षणिक उपकरणों- खिलौनों, खेलोपहारों, खेलों एवं गीतों की रचना की इनके कारण उसे शिक्षा जगत में बड़ी ख्याति मिली। उसने 1837 ई. में जर्मनी में अति रमणीक स्थान ब्लैंकेनबर्ग में एक शिशु विद्यालय खोला जिसका नाम बालोद्यान (किंडर गार्टन) रखा। उसका कहना था कि विद्यालय एक उपवन के सदृश है जहाँ शिक्षक रूपी माली बालक रूपी पौधों का सिंचन और विकास करते हैं।


 किंडर गार्टन प्रणाली के प्रमुख सिद्धांत हैं-


 (अ) स्वयं क्रिया एवं आत्म प्रकाशन की स्वतन्त्रता

 (ब) स्वतन्त्र एवं स्वाभाविक विकास

 (स) खेल द्वारा शिक्षा


नोट-

• फ्रोबेल गेंद के खेल को अत्यधिक महत्त्व देता था। 


• भाषा-शिक्षण में भी उपर्युक्त सिद्धान्तों का अनुसरण किया जाता है फ्रोबेल ने आत्मक्रिया, आत्म प्रकाशन, स्वतंत्रता एवं खेल की दृष्टि से अनेक उपहारों (गिफ्टस), व्यापारों (ऑकुपेशन), शिशुगीतों अथवा खेल गीतों (प्ले सांग्स) की सृष्टि की और भाषा-शिक्षण में इन शिक्षोपकरणों का प्रयोग किया।


सीमाएँ-


• इसमें कुछ कृत्रिमता है।

• इसमें वैयक्तिक शिक्षण की अवहेलना है।

• उपहारों में रहस्यात्मकता है।


• फिर भी इस विधि में स्वतन्त्रता, शारीरिक श्रम, इन्द्रिय प्रशिक्षण सामाजिकता आदि पर बल देता है।


(3) डाल्टन विधि-


• शिक्षा की आधुनिक मनोवैज्ञानिक विचारधाराओं के फलस्वरूप बालक को केन्द्र मानकर उसकी व्यक्तिगत शिक्षा पर बल देने के लिए जिन शिक्षण-प्रणालियों अथवा योजनाओं का सूत्रपात हुआ उनमें डाल्टन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस योजना का प्रवर्त्तन सन् 1913 में मिस हेलेन पार्कहर्स्ट ने किया जिन्हें डॉ. मेरिया मॉण्टेसरी के साथ कार्य करने का भी अवसर मिला था। इस योजना का प्रथम प्रयोग अमेरिका के मेसाचुसेट्स प्रांत के डाल्टन नगर के हाईस्कूल में किया गया था, इस कारण इस योजना का नाम डाल्टन योजना पड़ा। किंडर गार्टन एवं मॉण्टेसरी प्रणालियाँ शिशु शिक्षण प्रणालियाँ है पर डाल्टन योजना का प्रयोग 8 वर्ष से अधिक आयु (प्राथमिक विद्यालय) वाले बालकों के लिए किया गया है।


• इस प्रणाली के प्रमुख सिद्धांत हैं- बालकेंन्द्रिय शिक्षा, व्यक्तिगत शिक्षा एवं स्वाध्याय पर बल, अध्ययन एवं शैक्षिक प्रगति की स्वतन्त्रता, शिक्षक द्वारा उचित पथ-प्रदर्शन। इन विशेषताओं के कारण इसे ’स्वाध्याय विधि’ भी कहते हैं।


 इस प्रणाली की क्रिया विधि इस प्रकार है-


1. पाठ का ठेका-

· वर्ष भर के लिए पाठ्यसामग्री के शिक्षण की रूपरेखा तैयार कर ली जाती है। पूरे वर्ष का कार्य मासिक दृष्टि से 10 भागों में विभक्त कर लिया जाता है क्योंकि वार्षिक सत्र 10 माह का होता है। बालक इस कार्य को पूरा करने का उत्तरदायित्व ठेके के रूप में लेता है, इसलिए इसे ठेका प्रणाली (कान्ट्रैक्ट सिस्टम) कहते हैं।


2. निर्दिष्ट पाठ-

· महीने भर के कार्य को साप्ताहिक दृष्टि से चार भागों में बाँट दिया जाता है। एक सप्ताह के लिए निर्धारित कार्य को निर्दिष्ट पाठ कहते हैं।


3. इकाई-

· प्रत्येक सप्ताह के लिए निर्धारित निर्दिष्ट पाठ को फिर पाँच भागों में बाँटकर दैनिक कार्य योजना बनाई जाती है। एक दिन के लिए निर्धारित कार्य को इकाई कहते है। पर बालक को विवश नहीं किया जाता कि वह एक इकाई को एक दिन में पूरा ही कर ले, वह अपनी योग्यता शक्ति एवं क्षमता के अनुसार प्रगति करता हैं।


4. कक्षा के स्थान पर प्रयोगशाला-

· इस योजना में कक्षा संगठन की जगह विविध विषयों, जैसे इतिहास, भूगोल, भाषा, विज्ञान आदि की प्रयोगशालाएँ होती है जहाँ अध्ययन सम्बन्धी पुस्तकें, उपकरण, चार्ट, चित्र, पत्रिकाएँ आदि होती है। बालक यहाँ अलग-अलग अपनी रुचि के अनुसार अपने निर्दिष्ट पाठ पर जब तक चाहे कार्य करते रहें। शिक्षक (विषय-विशेषज्ञ) वहाँ मौजूद रहता है और आवश्यकता पड़ने पर वह बालक का उचित निर्देशन करता है।


5. विचार-विमर्श सभाएँ या सम्मेलन (असेम्बली)-

• प्रतिदिन अपने कार्य में संलग्न होने के पहले बालक एवं शिक्षक एकत्र होते हैं और उस दिन के कार्यों के सम्बन्ध में विचार-विमर्श करते हैं। सामान्य निर्देश, स्पष्टीकरण एवं आवश्यक सूचनाएँ इसी समय दे दी जाती हैं और बालक अपनी प्रयोगशालाओं में कार्य करने चले जाते हैं सायंकाल स्कूल बन्द होने के कुछ पहले वे फिर एकत्र होते हैं और अपने किए गए कार्यों के सम्बन्ध में विचार-वमर्श करते हैं। इस समय वे अपनी कार्य-प्रणाली की आलोचना में भी भाग लेते हैं और परस्पर विचारों के आदान-प्रदान से लाभ उठाते हैं।


6. प्रगतिसूचक रेखाचित्र-

• इस योजना में प्रत्येक बालक के कार्य की प्रगति का लेखा रखना आवश्यक है, क्योंकि प्रत्येक बालक को अपनी रुचि के अनुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता रहती है। अत: एक अवधि में सब बालकों की प्रगति एक समान नहीं होती। इसके लिए 3 प्रकार के ग्राफ चार्ट्स होते हैं- एक बालक स्वयं भरता है, दूसरा शिक्षक भरता है और तीसरे में बालक के समस्त विषयों की प्रगति का उल्लेख होता है।


• इस योजना में बालक अपना कार्य प्रयोगशालाओं में पूरा करता है। शिक्षक पथ-प्रदर्शन करता है। ठेका देते समय ही शिक्षक अध्ययन सम्बन्धी कार्यों एवं कार्य विधियों को स्पष्ट कर देता है जैसे, महीने भर का निर्दिष्ट पाठ, भाषा के अध्येतव्य अंग, लिखित कार्य, कण्ठस्थ करने की सामग्री, पाठ्यपुस्तकों एवं उनके विशिष्ट प्रकरणों तथा स्थलों का उल्लेख, विचार-विमर्श का समय, प्रगति रेखाचित्र भरने की विधि आदि।


• वस्तुत: डाल्टन कक्षा-प्रणाली की जगह स्वाध्याय प्रणाली पर बल देती है। कक्षा प्रणाली में बालक के वैयक्तिक विकास की अपेक्षा होती है। अत: भाषा की शिक्षा में भण्डार, अभिव्यक्ति (मौखिक एवं लिखित) आदि की दृष्टि से छात्रों में बड़ी विभिन्नता पाई जाती है। अत: भाषा शिक्षण में डाल्टन योजना की उपयोगिता स्वत: सिद्ध है क्योंकि भाषा सम्बन्धी ठेका दे देने पर बालक स्वाध्याय द्वारा उसे पूरा करने में लगे रहते हैं और अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार प्रगति करते हैं।


• उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि डाल्टन योजना माध्यमिक कक्षाओं के लिए ही उपयुक्त है।


(4) खेल विधि- प्रवर्तक- हेनरी काल्डवेल कुक


• स्तर- प्राथमिक व माध्यमिक कक्षाओं के भाषा-शिक्षण में इस विधि का प्रयोग सरलता से किया जा सकता है।


• भाषा एवं साहित्य पढ़ाने के लिए यदि खेलों का माध्यम अपनाया जाए तो बालक शीघ्र ही अपेक्षित योग्यता प्राप्त कर लेते हैं। अत: भाषा-शिक्षण सम्बन्धी कार्यों को खेलों का रूप प्रदान करना चाहिए।


• कुक महोदय ने शिक्षा के क्रियात्मक एवं व्यावहारिक रूप पर बल दिया। अंग्रेजी भाषा की शिक्षा प्रदान करने के लिए पर्स स्कूल में इन्होंने सर्वप्रथम खेल द्वारा शिक्षा (प्ले वे इन एजुकेशन) का प्रयोग किया उन्होंने ’दि प्ले वे’ नामक पुस्तक में इस प्रणाली पर प्रकाश डाला है।


• आधुनिक शिक्षण-प्रणालियों– किंडरगार्टन, मॉण्टेसरी, प्रोजेक्ट, डाल्टन, बेसिक आदि में खेल को शिक्षा का आवश्यक साधन माना गया है। विद्यालयीय कार्यक्रमों में स्काउटिंग, अभिनय, प्रहसन, समस्यामूलक खेल, पर्यटन, सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम एवं आयोजन आदि शैक्षिक खेलों के ही विभिन्न रूप हैं।


• भाषा-शिक्षण में अनेक खेलों का प्रयोग किया जा सकता है। अभिनय, प्रहसन, कविता-पाठ, अन्त्याक्षरी, कवि-दरबार, शब्द-रचना के खेल, वाक्य-रचना के खेल, समस्यापूर्ति आदि खेल के ही रूप में अपनाए जा सकते हैं।


• कुक महोदय ने अपनी पुस्तक ’प्ले वे’ में तथा डब्ल्यू. एम. रायबर्न ने ’प्ले वे सजेसन्स’ में भाषा-शिक्षण सम्बन्धी खेलों के सुझाव दिए।


(5) विनेटिका योजना- प्रतिपादक- कार्लटन वाशबर्न


• प्राथमिक स्तर के लिए उपयोगी

• बालक के सामाजिक विकास पर विशेष बल देती है।

• छात्र स्वयं कार्य की जाँच करके त्रुटि संशोधन करता है। अध्यापक उसके कार्य का निरीक्षण करता है।

• इस योजना में पहले शब्दों के उपकरण व बाद में पढ़ने की शिक्षा दी जाती है।


• इसमें पाठ्यक्रम सामान्य व विशिष्ट दोनों प्रकार का होता है। विशिष्ट पाठ्यक्रम में साहित्य व संगीत की शिक्षा दी जाती है।


• इस विधि में लिखित कार्य पर अधिक बल दिया जाता है।

• भाषा शिक्षण में इस विधि का प्रयोग किया जा सकता है लेकिन अधिक लाभ नहीं है। शुद्ध उच्चारण व वाचन कम सीख पाता है।

• भारत में छात्रों की संख्या बहुत है। अत: यहाँ के लिए यह उपयोगी नहीं है।


(6) प्रोजेक्ट विधि-


प्रोजेक्ट विधि का विचार-दर्शन प्रस्तुत करने का श्रेय प्रसिद्ध शिक्षा-विचारक प्रो. जॉन डीवी को है। 


जॉन डीवी के अनुसार- नवीन ज्ञान की प्राप्ति उन सक्रिय अनुभवों द्वारा होती है। जो हमें किसी वास्तविक समस्या या कठिनाइयों के समाधान के समय उपलब्ध होती है।


• अपने शैक्षिक विचारों को साकार रूप देने के लिए डीवी ने सन् 1896 में यूनिवर्सिटी लेबोरेटरी स्कूल की स्थापना की और एक नई क्रियात्मक शिक्षा-प्रणाली को जन्म दिया। इन्हीं विचारों के आधार पर कोलम्बिया विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री विलियम हर्ड किलपैट्रिक ने प्रोजेक्ट प्रणाली का प्रवर्तन किया।


• इस प्रणाली की सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि बालक स्वयं किसी प्रोजेक्ट (समस्यात्मक कार्य) को चुनते हैं, क्रिया द्वारा समस्या का समाधान ढूँढते है, तद्नुरूप कार्य में संलग्न होते हैं और शिक्षक के संरक्षण, पथ-प्रदर्शन में उस कार्य को पूरा करते हैं।


किलपैट्रिक के अनुसार ’प्रोजेक्ट वह प्रयोजनपूर्ण क्रिया है जिसे पूर्ण मनोयोग के साथ सामाजिक वातावरण में सम्पन्न किया जाता है।’


डॉ. स्टीवेन्सन के अनुसार ’प्रोजेक्ट वह समस्यामूलक कार्य है जो स्वाभाविक वातावरण में पूर्ण रूप से संपन्न किया जाता है।’


सिद्धान्त-  

• प्रयोजन

• क्रियाशीलता

• यथार्थता

• उपयोगिता

• स्वतन्त्रता

• अनुभव

• मितव्ययी का सिद्धान्त

• समन्वय का सिद्धान्त


प्रोजेक्ट विधि के चरण-

(i) उद्देश्य निर्धारण- जिसमें उचित परिस्थिति का निर्माण और प्रोजेक्ट चुनना दोनों कार्य शामिल है।

(ii) प्रोजेक्ट की कार्य-योजना।

(iii) प्रोजेक्ट क्रियान्विति करना।

(iv) कार्य का मूल्यांकन

(v) कार्य का विवरण या लेखा रखना।


प्रोजेक्ट के प्रकार-

किलपैट्रिक महोदय ने प्रोजेक्ट के चार प्रकार बताए हैं-

(1) सृजनात्मक

(2) रसास्वादन अथवा अनुरंजनात्मक

(3) समस्यात्मक

(4) अभ्यासात्मक अथवा कौशलात्मक


एलिसवर्थ कालिंस ने प्रोजेक्ट के चार प्रकार बताए हैं-


(1) खेल प्रोजेक्ट

(2) परिभ्रमण प्रोजेक्ट

(3) कहानी प्राजेक्ट

(4) नैतिक प्रोजेक्ट


नोट- इनमें कहानी प्रोजेक्ट से तो भाषा और साहित्य का सीधा सम्बन्ध है ही, शेष तीनों में भी उसका अवसर मिलता है।


चार्ल्स ए मक्मेरी ने प्रोजेक्ट के चार प्रकार बताए हैं-

(1) हस्तकला सम्बन्धी

(2) औद्योगिक या व्यापारिक

(3) विज्ञान सम्बन्धी

(4) ऐतिहासिक और साहित्यिक


प्रोजेक्ट के गुण-

• बाल केन्द्रित, मनौवैज्ञानिक

· रोचक, व्यावहारिक ज्ञान, मानसिक विकास, थॉर्नडाइक के सीखने के नियम से प्रभावित, नेतृत्व गुण, सभी उम्र के लिए।

· विविध विषयों का सहसंबंध, एकीकरण प्रोजेक्ट प्रणाली की बड़ी विशेषता है।


प्रोजेक्ट के दोष-

• क्रमबद्ध ज्ञान नहीं, समय सारणी का ध्यान नहीं, गलतियाँ अधिक, अध्यापक पर अधिक उतरदायित्व, खर्चीली विधि।

• भाषा शिक्षण की दृष्टि से अधिक उपयोगी नहीं है।


(7) व्याकरण अनुवाद विधि / भंडारकर विधी -  

प्रवर्तक- श्रीरामकृष्ण गोपाल भंडारकर


• इस पद्धति में किसी भी नवीन भाषा को मातृभाषा के माध्यम द्वारा सिखलाया जाता है।

· राष्ट्रभाषा हिन्दी का ज्ञान कराने के लिए, उसके प्रत्येक शब्द या वाक्य का शिक्षार्थी की मातृभाषा में अनुवाद किया जाता है। यथा-

(i) अनुवाद व्याकरण के नियमों पर आधारित है।

(ii) इस पद्धति से राष्ट्रभाषा हिन्दी का लोकोक्तियों व शब्दों का ज्ञान बड़ी सरलता से हो सकता है।

(iii) अनुवाद के द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी व मातृभाषा की समानताओं व विभिन्नताओं का सम्यक ज्ञान हो जाता है।


दोष-

• इस विधि में वाचन पर अधिक बल दिया जाता है।

• वार्तालाप का अवसर विद्यार्थियों को नहीं मिल पाता है।

• इसमें नवीन भाषा की स्वाभाविकता नष्ट हो जाती है। शिक्षण की प्रक्रिया प्रभाव रहित हो जाती है।


 नोट- यह विधि अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में हिन्दी शिक्षण के लिए उपयोगी है।


(8) डैक्राली पद्धति-

मानसिक विकृतियुक्त छात्रों के लिए डैक्राली नामक शिक्षाशास्त्री ने इस पद्धति का प्रयोग किया।


• सामाजिक जीवन, व्यक्तिगत विभिन्नताओं, बालक की रुचियों एवं बालक की क्रियाओं को इस पद्धति में महत्त्व दिया जाता है।

• पाठशाला का वातावरण प्राकृतिक होता है और यह पद्धति चार वर्ष से उन्नीस वर्ष की आयु तक के बालकों के लिए निश्चित की गई है। इस पद्धति के अनुसार भाषा की शिक्षा प्रात:काल दी जाती है, शाम को खेल, संगीत आदि होता है। बालक भाषा की सामग्री का चुनाव अध्यापक की सहायता से स्वयं करता है। वह स्वयं भाषा-पाठ्यक्रम का केन्द्र होता है। भाषा के सम्बन्ध में छात्र की प्रगति का मूल्यांकन अंकों के आधार पर न होकर योग्यता के आधार पर होता है। इसमें भाषा सिखाने के लिए पुस्तकों पर बल नहीं दिया जाता।


• इस पद्धति में भाषा की शिक्षा अपूर्ण रहती है। यद्यपि इसमें निराकर अभिव्यक्ति के रूप में बोलने, पढ़ने और लिखने पर बल है तथापि भाव- प्रकाशन का अवसर कम ही मिल पाता है। यह सामान्य बालकों के लिए नहीं है और इस पद्धति का क्षेत्र बड़ा संकुचित है, क्योंकि यह मानसिक विकार वाले बालकों तक ही सीमित हैं।


(9) द्विभाषी पद्धति-

प्रवर्तक- डोडसन


• यह व्याकरण अनुवाद प्रत्यक्ष विधि दोनों के मध्य सेतू का व्यवहार किया जाता है।

• इस पद्धति में बालक को मातृभाषा व विदेशी भाषा दोनों को संयुक्त रूप से प्रयोग में लेते हुए विदेशी भाषा को सिखाया जाता है।

• इस पद्धति में प्रत्येक शब्द को अनुवादित नहीं किया जाता है। जिनको बालक मातृभाषा में जानता है।

• द्विभाषी विधि को प्राय: विदेशी भाषा पढ़ाने के काम में लिया जाता है शिक्षण में द्विभाषी का प्रयोग अंग्रेजी, फ्रेन्च,रूसी आदि में किया जाता है।


 नोट- व्यतिरेकी विधि- द्वितीय भाषा शिक्षण की तुलनात्मक विधि है।


(10) प्रत्यक्ष विधि-


• किसी नवीन भाषा को प्रत्यक्ष विधि के द्वारा सिखलाया जाए- इसका तात्पर्य यह है कि बालक जिस प्रकार अपनी मातृभाषा सीखता है उसी प्रकार वह नवीन भाषा भी सीखे।

• प्रत्यक्ष विधि में मातृभाषा का प्रयोग ठीक नहीं समझा जाता। उसे भाव प्रकाशन में बाधा समझा जाता है। जब शिक्षार्थी शिक्षक के साथ-साथ वाक्य की आवृत्ति करता है, तो उसे मातृभाषा प्रयोग करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।

• इस पद्धति में व्याकरण की शिक्षा पर भी बल दिया जाता, क्योंकि शुद्ध भाषा का ज्ञान तो प्रयोग के द्वारा दिया जा सकता है। शिक्षार्थी अध्यापक का अनुकरण करते हुए वाक्यों की जो आवृत्ति करता है, उससे वह व्याकरण का व्यावहारिक ज्ञान भी साथ-साथ प्राप्त करता जाता है।


प्रत्यक्ष विधि के गुण-

• इस पद्धति में वार्तालाप, मौखिक कार्य एवं बोलने के अभ्यास पर बल दिया जाता है।

• इस पद्धति में अन्य भाषा को स्वतन्त्र एवं पृथक् भाषा के रूप में पढ़ाया जाता है।

• इस पद्धति में मातृभाषा के प्रयोग को सीमित कर दिया जाता है और सम्पूर्ण वाक्य को इकाई माना जाता है।

• सीमित शब्द-ज्ञान का प्रयोग करके शब्दावली को नियन्त्रित कर दिया जाता है।


• प्रत्यक्ष पद्धति में अन्य भाषा के अध्ययन के समय अन्य भाषा में ही आदेश, निर्देश दिए जाते हैं और उसी में विचारों की अभिव्यक्ति की जाती है।


• इस पद्धति का मुख्य सिद्धांत यह है कि जिस प्रकार बालक श्रवण एवं अनुकरण द्वारा मातृभाषा सीख लेता है, उसी प्रकार वह दूसरी भाषा भी सीख सकता है।


• इस पद्धति से व्याकरण- अनुवाद प्रणाली के दोष अपने-आप दूर हो जाते हैं।


• व्याकरण की सहायता इस पद्धति में नहीं ली जाती है।


• दूसरी भाषा सिखाने में उसी भाषा का माध्यम अपनाया जाता है, अत: अनुवाद की आवश्यकता नहीं पड़ती है।


• भाषा के दो आधारभूत कौशलों- सुनना और बोलना को सीखने का पर्याप्त अवसर मिलता है तथा उस भाषा की ध्वनियों एवं उच्चारणों से बालक सहज ही परिचित हो जाता है।


• अनुभूति और अभिव्यक्ति में सीधा सम्बन्ध होना चाहिए, बीच में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए।


• इसमें बच्चे को अ से अनार, ई से ईख, चार्ट मे चित्र के साथ या प्रत्यक्ष दिखाकर इन अक्षरों को लिखकर दिया जाता है।


प्रत्यक्ष विधि के दोष


• प्रत्यक्ष विधि से सीमित शब्दावली का ही ज्ञान दिया जा सकता है।

• अनेक शब्द ऐसे होते हैं जिनकी प्रत्यक्ष व्याख्या नहीं हो सकती।

• इस विधि में कठिनाई यह है कि कुछ संज्ञा शब्दों-पुस्तक, कलम, गेंद, कागज, कुर्सी, मेज, लड़का, लड़की आदि का ज्ञान तो करा दिया जाता है पर भाववाचक शब्दों एवं विशेषणों एवं संरचनात्मक शब्दों के ज्ञान में बड़ी कठिनाई होती है।

• इस विधि में वाक्य–संरचनाओं का पर्याप्त ज्ञान नहीं कराया जा सकता। प्रश्नोत्तर विधि द्वारा कुछ वाक्यों की संरचना तो बता दी जाती है जैसे, यह क्या है? वह क्या है? पर सभी प्रकार की वाक्य-संरचनाओं का ज्ञान कराना बहुत कठिन है।

• सुनने और बोलने पर अधिक बल होने से वाचन और लेखन गौण हो जाते हैं।

• इसके द्वारा केवल संज्ञा या उन शब्दों का ज्ञान दिया जा सकता है जिनके चित्र आदि बन सकें या जिन चीजों को कक्षा तक लाया जा सके।

• प्रत्यक्ष पद्धति से पढ़ाने में लेखन तथा व्याकरण का ज्ञान रह जाता है।


 नोट- परोक्ष विधि- यह विधि प्रत्यक्ष विधि की ठीक विपरीत विधि है इस विधि में मातृभाषा के माध्यम से किसी नवीन भाषा को पढ़ाया जाता है। 


(11) अनुकरणात्मक विधि-


· अनुकरण विधि में बालक अपने शिक्षक का अनुकरण कर लिखना, पढ़ना (उच्चारण करना) व नवीन रचना करना सीखता है। इस विधि में शिक्षक बालक को प्रारम्भ में अक्षर ज्ञान कराना प्रारम्भ करता है। शिक्षक श्यामपट्‌ट, कॉपी या स्लेट पर अक्षरां को लिख देता है और छात्रों को कहता है कि इन अक्षरों को देखकर उनके नीचे स्वयं उसी प्रकार अक्षर बनाएँ।


 वह निम्नलिखित प्रकार से बालक को अनुकरण द्वारा सिखाता है-

(अ) लिखित अनुकरण

 लिखित अनुकरण निम्न प्रकार का होता है-

(1) रूप-रेखा अनुकरण-

· रूपरेखा अनुकरण में शिक्षक हल्के हाथ से अभ्यास पुस्तिका पर अक्षरों की आकृति बना देता है अथवा मुद्रित पुस्तिकाएँ जिनमें अक्षर या वाक्य बिन्दु रूप में लिखे होते हैं, बालकों को देता है। बालक उन बिन्दुओं पर सधे हुए हाथ से पेन्सिल या बालपेन फेरते हैं और उन्हीं रेखाओं को पुष्ट बना देते हैं। यह बहुत पुरानी विधि है और बहुत से स्थानों पर अब भी प्रचलित है। इस विधि से अक्षर सीखने का अभ्यास करने के लिए विशेष प्रकार की अभ्यास-पुस्तिकाएँ भी उपलब्ध होती है। बालक अभ्यास करते-करते अक्षरों या शब्दों को लिखना सीख जाता है।


(2) स्वतन्त्र अनुकरण-

 अध्यापक श्यामपट्ट पर या अभ्यास पुस्तिका पर अक्षर लिख देता है और बालक से कहता है कि वह नीचे स्वयं उसी प्रकार से अक्षर लिखे। जैसे- क। बालक के पास उन अक्षरों का अनुकरण के लिए भी अभ्यास पुस्तिकाएँ उपलब्ध होती है।


(ब) उच्चारण अनुकरण-

· इस पद्धति में अध्यापक एक-एक शब्द कहता जाता है और बालक उस शब्द की ध्वनि का अनुकरण करते चलते हैं। अनुकरण विधि उन भाषाओं के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है जहाँ पर एक से अधिक ध्वनियाँ होती है अथवा जहाँ पर लिखा कुछ जाता है और पढ़ा कुछ जाता है।


(स) रचना अनुकरण विधि-

• इस विधि में जिस प्रकार की भाषा और शैली में रचना करानी होती है, उसी भाषा और शैली पर आधारित रचना (गद्य, पद्य, नाटक आदि) को विद्यार्थियों के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया जाता है।


• छात्र दिए हुए विषय पर उसी के अनुरूप रचना करने का प्रयास करते हैं, उदाहरणार्थ दीपावली का लेख बताकर होली पर लेख लिखाना।

• इसमें छात्रों की भाषा तो अपनी होती है किन्तु शैली के लिए उन्हें आदर्श रचना पर ही निर्भर रहना पड़ता है।


• यह विधि उच्च कक्षाओं के लिए ही उपयुक्त हो सकती है।


(12) अभिक्रमित अनुदेशन विधि-


· अभिक्रमित-अनुदेशन एक ऐसी प्रविधि है जिसमें बालक स्वयं की गति से सीखता है, स्वयं अध्ययन करता है तथा अपने उत्तरों की जाँच भी तत्काल करता है। यह एक व्यक्तिगत अधिगम या अनुदेशन प्रविधि है जिसमें बालक सक्रिय होकर अपनी गति एवं क्षमताओं के अनुरूप अधिगम अनुभव अर्जित करता है। अभिक्रमित-अधिगम के प्रणेता बी.एफ. स्कीनर हैं।


· सामान्यत: अभिक्रमित अधिगम तथा अभिक्रमित अनुदेशन दो शब्दों को पर्याय के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। परन्तु दोनों के सही अर्थ में बहुत अन्तर है। अभिक्रमित अधिगम तथा अभिक्रमित अनुदेशन में वहीं अंतर है जो अधिगम तथा अनुदेशन में है। अभिक्रमित-अधिगम का संबंध बालकों की क्रियाओं से होता है। इसमें बालक को सीखने के लिए पाठ्यवस्तु को मनोवैज्ञानिक क्रम में प्रस्तुत किया जाता है तथा बालक को सीखने के लिए किसी न किसी रूप में अनुक्रिया करनी पड़ती है। अनुक्रिया की स्वयं जाँच तुरंत कर ली जाती है कि इनकी अनुक्रिया सही है या गलत। अनुक्रिया सही होने पर बालकों को पुनर्बलन मिलता है जबकि अभिक्रमित अनुदेशन का उद्देश्य वांछित व्यवहारगत परिवर्तन हेतु समुचित अधिगम परिस्थितियाँ उत्पन्न करना है। इसके अंतर्गत यह व्यवस्था की जाती है कि पाठ्य-वस्तु द्वारा किन-किन उद्देश्यों की प्राप्ति की जाएगी तथा निर्धारित उद्देश्यों को व्यवहारगत परिवर्तन के रूप में लिखा जाता है। इस प्रकार अधिगम अनुदेशन में अधिगम-स्वरूपों तथा अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन को महत्त्व दिया जाता है।


परिभाषाएँ

सुसन मार्कल- अभिक्रमित-अधिगम व्यक्तिगत अनुदेशन की वह विधि है जिसमें बालक स्वयं क्रियाशील रहकर स्वयं की सीखने की गति से सीखता है तथा उसके उत्तरों की तत्काल जाँच करता है।


कोरे- अभिक्रमित-अनुदेशन एक ऐसी शिक्षण-प्रक्रिया है जिसमें बालक के वातावरण को सुव्यवस्थित कर पूर्व-निश्चित व्यवहारों को उसमें विकसित कर लिया जाता है।


स्मिथ और मुरे- अभिक्रमित अनुदेशन किसी अधिगम सामग्री को क्रमिक पदों की शृंखला में व्यवस्थित करने वाली एक प्रक्रिया है और प्राय: इसके द्वारा किसी विद्यार्थी को उसकी परिचित पृष्ठभूमि से प्रत्ययों, सिद्धांतों एवं बोध के एक जटिल और नवीन स्तर पर लाया जाता है।


अभिक्रमित-अधिगम के सिद्धांत-


1. छोटे-छोटे पदों का सिद्धांत

2. क्रियाशीलता या तत्परता का सिद्धांत

3. स्वयं की गति से सीखने का सिद्धांत

4. पुनर्बलन का सिद्धांत

5. तार्किक क्रम का सिद्धांत

अभिक्रमित-अनुदेशन की विशेषताएँ-


• यह मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित अधिगम विधी है।


• इसमें विषय-वस्तु को छोटे-छोटे पदों (फ्रेम्स) में प्रस्तुत किया जाता है जिससे बच्चे आसानी से सीख जाते हैं।

• यह स्वत: अध्ययन की आदत का विकास करने में सहायक है।

• इसमें बालकों को अपनी गति तथा क्षमता के अनुसार सीखने का अवसर मिलता है।

• इसकी सहायता से कठिन प्रत्ययों, नियमों या सिद्धांतों को सरलता से समझा जा सकता है।

• अभिक्रमित-अधिगम में बालक अधिक क्रियाशील रहते हैं।

• इसमें अनुक्रिया की तत्काल जाँच करने की व्यवस्था रहती है जिससे छात्र सीखने के लिए तत्पर रहता है।

• अभिक्रमित-अधिगम में बालकों को वैयक्तिक विभिन्नताओं के अनुसार सीखने का अवसर मिलता है।

• इसमें बालक की सही अनुक्रिया को पुनर्बलन मिलता है जिससे अधिगम प्रक्रिया अधिक प्रभावशाली हो जाती है।

• अभिक्रमित-अधिगम में पदों को एक निश्चित तथा तार्किक क्रम में व्यवस्थित किया जाता है।


अभिक्रमित-अनुदेशन की सीमाएँ-


• इसमें बालकों की रुचि तथा आवश्यकता पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

• अभिक्रमित अधिगम या अनुदेशन द्वारा सृजनात्मक और उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति संभव नहीं है।

• इसके अंतर्गत अधिगम नियंत्रित परिस्थितियों में ही होता है।

• इसके द्वारा शिक्षण करने हेतु पदों की रचना करना कठिन कार्य है।

• इसके द्वारा शिक्षण करने के लिए विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।

• प्रखर बुद्धि या प्रतिभाशाली छात्र इसके द्वारा अध्ययन करने में अधिक रुचि नहीं लेते हैं।

• अभिक्रमित-अनुदेशन द्वारा उपचारात्मक शिक्षण संभव नहीं हो पाता है। इसका प्रयोग केवल शिक्षण और अधिगम के लिए ही किया जाता है।


अभिक्रमित-अनुदेशन के प्रकार

1. रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन-

प्रतिपादक- B.F. स्कीनर (1954 में)

• अन्य नाम: शृंखला/बाह्य/स्किनेरियन प्रणाली


• रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन को शृंखला अभिक्रमित अधिगम भी कहते हैं। इसके प्रवर्तक हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बी.एफ. स्कीनर हैं। इसका प्रमुख उद्देश्य अनुदेशन देना है। इसके अंतर्गत विषय-वस्तु को छोटे-छोटे पदों में क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत किया जाता है। प्रत्येक पद पर बालक अनुक्रिया करता है जिसका संबंध अंतिम व्यवहार से होता है। रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन में छात्र को प्रत्येक पद पढ़ना पड़ता है और इस प्रकार धीरे-धीरे वह वांछित व्यवहार अर्जित कर लेता है। पदों (फ्रेम्स) के क्रम को निम्न प्रकार प्रदर्शित किया जा सकता है-


• इस प्रकार छात्र एक के बाद एक पद फ्रेम) को पढ़ता चला जाता है तथा अंत तक सभी फ्रेमों को एक के बाद एक पढ़ता है और ज्ञानार्जन करता है। पहला पद पढ़ने के बाद अनुक्रिया करता है तथा दूसरे पद को पढ़ने से पहले प्रथम पद के उत्तर की जाँच भी कर लेता है कि उसका उत्तर सही है या गलत जिससे उसे प्रतिपुष्टि मिलती है। रेखीय अभिक्रमित अधिगम की प्रक्रिया को एक सीधी रेखा द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है इसलिए इसको रेखीय या शृंखला अभिक्रमित-अनुदेशन कहते हैं।


• इसके अंतर्गत प्रत्येक पद का सही उत्तर साथ दिया जाता है। सही अनुक्रिया करने पर बालकों को आनंद की अनुभूति होती है तथा अगले पद के लिए पुनर्बलन मिलता है। इस प्रकार पुनर्बलन से बालक उद्दीपन व अनुक्रिया में संबंध स्थापित करता है। रेखीय अभिक्रमित अधिगम में पदों के इस स्वरूप से बालकों में अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन लाया जाता है। इसमें फ्रेम्स (पदों) की व्यवस्था इस प्रकार की जाती है कि एक पद की अनुक्रिया अगले पद के लिए उद्दीपन का कार्य करती है। इस प्रकार यह शृंखला अंत तक चलती रहती है।


रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन में पदों (फ्रेम) का निर्माण क्रम में किया जाता है-


i. प्रस्तावना पद-


· रेखीय-अभिक्रमित अनुदेशन में ये प्रारम्भिक पद होते हैं जिनका संबंध पाठ की प्रस्तावना से होता है। इन पदों के माध्यम से बालक के पूर्व ज्ञान को नवीन ज्ञान या पढ़ाई जाने वाली विषय-वस्तु या प्रकरण से संबंधित किया जाता है। इन पदों की संख्या अधिक नहीं होनी चाहिए।


ii. शिक्षण पद-


· ये पद पढ़ाई जाने वाली विषय-वस्तु से संबंधित होते हैं तथा इनके द्वारा विषय-वस्तु के स्वरूप को प्रस्तुत किया जाता है। इनके द्वारा बालकों को नवीन ज्ञान प्रदान किया जाता है। इनमें एक विशेष क्रम होता है जिससे धीरे-धीरे बालक पूरा पाठ समझ लेता है। इन पदों की संख्या अधिक होनी चाहिए जिससे बालक आसानी से उस विषय-वस्तु को समझ सके।


iii. अभ्यास पद-


· इन पदों की सहायता से बालक द्वारा अर्जित किए गए ज्ञान का अभ्यास करवाया जाता है। जिससे बालक उस प्रकरण या विषय-वस्तु को सरलता से सीख सकें तथा अपना ज्ञान स्थायी बना सकें।


iv. परीक्षण पद-


· परीक्षण पदों का मुख्य उद्देश्य सीखे हुए ज्ञान की जाँच करना होता है बालक किस सीमा तक विषय-वस्तु को सीख पाए हैं। इन पदों का उत्तर सही देने पर यह मान लिया जाता है कि बालकों ने उस प्रकरण या विषय-वस्तु को समझ लिया है।


2. शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन-

प्रतिपादक- नॉर्मन ए. क्राउडर (1960 में)

• अन्य नाम- अरेखीय/आन्तरिक/क्राउडेरियन प्रणाली


• शाखीय अभिक्रमित-अधिगम का विकास संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक नॉर्मन ए. क्राउडर ने किया। शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन में विषय-वस्तु को छोटे-छोटे पदों में व्यवस्थित न करके सम्पूर्ण विषय-वस्तु को एक प्रत्यय के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें बालक को एक पद पढ़ने के लिए दिया जाता है। उस पद या प्रश्न के तीन या चार विकल्पों में उत्तर दिए जाते हैं। दिए गए विकल्पों में से बालकों को उस पद या प्रश्न का सही उत्तर चुनना होता है। सही उत्तर चुनने पर उसे अगले पद पर जाने का निर्देश दिया जाता है तथा गलत उत्तर चुनने पर उसका निदान करने हेतु उसे विभिन्न शाखाओं से होकर सीखना पड़ता है। शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन की प्रक्रिया को निम्नलिखित प्रवाह चार्ट द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-


· उपर्युक्त चित्र से स्पष्ट है कि पद- 1, 2, 3 और 4 में पूछे गए प्रश्न के तीन उत्तर- a, b, c विकल्प के रूप में दिए हैं, जिनमें से एक विकल्प ही सही उत्तर है। उदाहरण के लिए पद (1) का सही उत्तर (b) है तथा (a) और (c) गलत उत्तर हैं। यदि छात्र (a) और (c) विकल्पों से कोई एक विकल्प चुनता है तो वह (a) के लिए (1a) फ्रेम तथा (c) के लिए (1c) फ्रेम को पढ़ेगा तथा वहाँ पर उसको समझाया जाएगा कि उसका उत्तर गलत क्यों है? तथा उसे पुन: पद-1 को पढ़ने के लिए निर्देश दिया जाएगा तथा सही उत्तर चुनने के लिए कहा जाएगा। यदि बालक (b) अर्थात् सही विकल्प का चयन करता है तो उसे शाखाओं में जाने की आवश्यकता नहीं होती है, वह सीधे ही अगले फ्रेम अर्थात् पद-2 पर पहुँच जाएगा। इस प्रकार शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन में गलत उत्तर चुनने पर बालक उपचारात्मक शिक्षण के लिए शाखाओं के फ्रेम्स को पढ़ता है। अत: इस प्रकार के अनुदेशन में सीखने के लिए विभिन्न शाखाओं की व्यवस्था होती है इसलिए इसे शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन कहते हैं। इस अनुदेशन में अपने पढ़ने की दिशा बालक स्वयं निर्धारित करता है। शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन को आन्तरिक- अनुदेशन भी कहते हैं क्योंकि बालक द्वारा सही या गलत विकल्प का चयन करना तथा तद्नुसार अध्ययन करना आन्तरिक निर्णय होता है।


• शाखीय अधिगम में पदों को पृष्ठों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें दो प्रकार के पृष्ठ होते हैं-


(a) गृह पृष्ठ   

(b) त्रुटि पृष्ठ


(a) गृह पृष्ठ-

· गृह पृष्ठ पर पढ़ाई जाने वाली विषय-वस्तु की व्याख्या की जाती है तथा एक प्रश्न पद दिया जाता है जिसका उत्तर तीन या चार विकल्पों के रूप में दिया जाता है। दिए गए विकल्पों में बालक को सही उत्तर चुनना होता है। गृहपृष्ठ के मुख्य रूप से तीन कार्य होते हैं-

(1) विषय-वस्तु का अध्ययन करना।

(2) दिए गए प्रश्न के लिए छात्र अनुक्रिया करता है।

(3) गलत अनुक्रिया करने पर उसकी त्रुटियों तथा कमजोरियों का निदान करना।


(b) त्रुटि पृष्ठ-

· त्रुटि पृष्ठ पर निदानात्मक तथा उपचारात्मक निर्देश दिए जाते हैं। गृह पृष्ठ पर दिए गए प्रश्न के लिए जब त्र अनुक्रिया करता है तथा किसी एक विकल्प का चयन करता है तो वह उस पृष्ठ पर जाएगा जिसकी संख्या उस विकल्प के सामने अंकित होती है। यदि वह गलत उत्तर का चयन करता है तो वह उस पृष्ठ पर जाएगा, जहाँ पर उसे अपनी गलती का बोध होगा कि उसकी अनुक्रिया गलत है। त्रुटित पृष्ठ पर बालक को निर्देश मिलेगा कि आप पुन: गृह पृष्ठ पर लौट जाइए, प्रश्न को ध्यानपूर्वक पढ़ें और सही अनुक्रिया विकल्प का चयन करें।


3. अवरोह अभिक्रमित अनुदेशन/गणितीय अभिक्रमित अनुदेशन-

· प्रतिपादक- थॉमस गिलबर्ट (1962 में)

• अवरोह अभिक्रमित-अनुदेशन के प्रवर्तक एफ- गिलबर्ट हैं। इस अनुदेशन का विकास उन्होंने 1962 में किया था। अवरोह अभिक्रमित अनुदेशन का मुख्य उद्देश्य विषय-वस्तु के स्वामित्व पर अधिक बल देना है जबकि रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन में व्यवहार परिवर्तन तथा शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन में उपचारात्मक शिक्षण पर अधिक बल दिया जाता है। गणित शिक्षण में अवरोह अभिक्रमित अनुदेशन का प्रयोग प्रभावशाली ढंग से किया जाता है। इसके अंतर्गत व्यवहार में विभेदीकरण, सामान्यीकरण तथा शृंखला को अधिक महत्त्व दिया जाता है।


• अवरोह अभिक्रमित अनुदेशन में अनुक्रियाएँ अवरोह क्रम में की जाती हैं। दूसरे शब्दों में अंतिम क्रिया सबसे पहले तथा प्रथम क्रिया अंत में करनी पड़ती है। इसलिए इसे अवरोह शृंखला अनुदेशन के नाम से भी जाना जाता है। गिलबर्ट के अनुसार- “अवरोह अभिक्रमित अनुदेशन जटिल व्यवहार शृंखला के निर्माण एवं विश्लेषण के लिए पुनर्बलन के सिद्धान्तों का एक व्यवस्थित प्रयोग है जो विषय वस्तु के स्वामित्व को प्रदर्शित करता है।” इस प्रकार इसमें कार्य की पूर्ति से बालकों को पुनर्बलन मिलता है तथा विषय-वस्तु के प्रस्तुतीकरण में प्रत्येक उद्दीपन पुनर्बलन प्रदान करता है।


• इसके द्वारा शिक्षण करने पर प्रथम फ्रेम में प्रत्यय, सूत्र या नियम की व्याख्या की जाती है। छात्रों से कोई अनुक्रिया नहीं करवाई जाती है। इसके बाद द्वितीय फ्रेम में सभी पदों का प्रदर्शन किया जाता है, परंतु अंतिम पद स्वामित्व पद के लिए छात्र अनुक्रिया करते हैं। तीसरे फ्रेम में सभी पदों का प्रदर्शन किया जाता है तथा अंतिम दों पदों के लिए छात्र अनुक्रिया करते हैं। इसी प्रकार चतुर्थ फ्रेम में प्रथम दो पदों का प्रदर्शन किया जाता है तथा अंतिम तीन पदों के लिए छात्र अनुक्रिया करते हैं उदाहरणार्थ यदि किसी समस्या को पाँच पदों में हल किया जाता है तो उसके लिए अवरोही क्रम अधिगम का स्वरूप निम्न प्रकार होगा- होगा 

  • पद (Frames)

    समस्या के पद (Steps)

    Step

    Step

    Step

    Step

    Step

    1

    2

    3

    4

    5

    Frame 1

    D

    D

    D

    D

    D

    Frame 2

    D

    D

    D

    D

    P

    Frame 3

    D

    D

    D

    P

    E

    Frame 4

    D

    D

    P

    E

    E

    Frame 5

    D

    P

    E

    E

    E

    Frame 6

    P

    E

    E

    E

    E

    Frame 7

    E

    E

    E

    E

    E

 

D = Demonstration, P = Prompts E = Exercise

 प्रदर्शन अनुबोधक अनुक्रिया/अभ्यास


• उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट होता है कि विषय-वस्तु के स्वामित्व के लिए पूरी शृंखला को प्रत्येक बार दोहराया जाता है तथा प्रत्येक फ्रेम में संपूर्ण प्रक्रिया को सम्मिलित किया जाता है। जैसे-जैसे बालक आगे बढ़ते जाते हैं उन्हें उतना ही अधिक क्रियाशील रहना पड़ता है तथा सूचनाओं के प्रदर्शन को कम किया जाता है। इस प्रकार अधिगम करने पर छात्र गणित की विषय-वस्तु पर सरलता से स्वामित्व प्राप्त कर सकता है तथा गणितीय प्रत्ययों को आसानी से सीख सकता है।


(13) बेसिक शिक्षा-

· बेसिक शिक्षा प्रणाली के प्रवर्तन का श्रेय राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी को है जिन्होंने ब्रिटिशकालीन शिक्षा के अनिष्टकारी प्रभावों से राष्ट्र को मुक्त करने तथा शिक्षा को भारतीय जीवन और आवश्यकताओं से सम्बन्धित करने के लिए इस प्रणाली के सिद्धान्तों का प्रवर्तन किया। 31 जुलाई, 1937 को ‘हरिजन’ अंक के एक लेख में उन्होंने लिखा था कि ‘शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक के सर्वोत्तम शारीरिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक तत्त्वों के विकास से है। साक्षरता शिक्षा नहीं है। शिक्षा का आरम्भ साक्षरता से नहीं, अपितु किसी उपयोगी उद्योग या शिल्प से होना चाहिए।’ अक्टूबर, 1937 को मारवाड़ी हाई स्कूल, वर्धा की रजत जयन्ती के अवसर पर शिक्षा विशेषज्ञों, नेताओं तथा कांग्रेस मंत्रिमण्डल वाले प्रान्तों के शिक्षामंत्रियों का सम्मेलन हुआ जिसे अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन या ‘वर्धा सम्मेलन’ भी कहते हैं। गाँधी जी स्वयं ही इस सम्मेलन के सभापति थे। इस सम्मेलन ने निम्नांकित प्रस्ताव पारित किए-


1. सात वर्ष तक (7-14 = 7 वर्ष) की प्राइमरी शिक्षा अनिवार्य एवं नि:शुल्क हो।  

2. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो।

3. उद्योग अथवा हस्तशिल्प द्वारा शिक्षा प्रदान की जाए। शिक्षा को शिक्षा की धुरी मानकर अन्य सभी विषय उससे सम्बन्धित करके पढ़ाए जाए। हस्तशिल्प का चुनाव बालकों के वातावरण से किया जाए।


(14) भाषा संसर्ग विधि-

· इस विधि के अनुसार सिद्धान्त तथा नियम पृथक् रूप से सिखाने के बिना ही रचना तथा अभ्यास द्वारा व्याकरण का ज्ञान कराया जा सकता है।

• व्याकरण के बिना ही भाषा का शुद्ध प्रयोग सिखाना और इस प्रकार शिक्षण के उद्देश्य की पूर्ति करना। इस विधि का मुख्य ध्येय है।

• जो विद्वान व्याकरण को एक कठिन व नीरस विषय मानते हैं उनके मतानुसार बच्चों को व्याकरण के नियमों की जानकारी अलग से देने की कोई आवश्यकता नहीं है।

• इस प्रणाली के अनुसार बच्चों को ऐसे लेखकों की रचनाएँ पढ़ने के लिए दी जाए जिनका भाषा पर पूर्ण अधिकार हो।

• बच्चों को ऐसे लोगों के साथ वार्तालाप करने का अवसर दिया जाए जो मौखिक अभिव्यक्ति में शुद्ध भाषा का प्रयोग करते हो।

• इस प्रणाली में व्याकरण के नियमों का ज्ञान कराए बिना, भाषा के शुद्ध रूप का अनुकरण करने का अवसर प्राप्त कर छात्रों को भाषा के शुद्ध रूप का प्रयोग करना सिखाया जाता है।


गुण-

• प्राथमिक कक्षाओं में व्याकरण पढ़ाने की यही प्रणाली लाभदायक है।

• प्रारम्भिक कक्षा में रचना तथा अभ्यास द्वारा भाषा का शुद्ध प्रयोग कराया जा सकता है।

• अध्यापक केवल यह देखे कि बच्चे जो कुछ बोले या लिखे वह ठीक हो।

• मौखिक रचना पर्याप्त मात्रा में हो पर बच्चे बिना रोक-टोंक के शुद्ध बोलते जाएँगे।


दोष-

• व्याकरण में समस्त नियम केवल भाषा-संसर्ग द्वारा नहीं सीखे जा सकते। यदि सीख भी जाए, तो समय अधिक व्यय होगा।

• किसी भाषा को पूर्ण रूप से सीखने के लिए व्यवस्थित रूप से व्याकरण के सीखने की आवश्यकता पड़ती है।

• अध्यापक व्याकरण सिखाए बिना विद्यार्थियों को शुद्ध भाषा के सम्बन्ध में निश्चित नहीं हो सकता।

• प्राथमिक स्तर पर बच्चों को व्यावहारिक व्याकरण का ज्ञान देने के लिए तो यह विधि उपयोगी है परन्तु व्याकरण का तार्किक ज्ञान कराने के लिए अन्य विधियों की सहायता लेनी होगी।

• व्याकरण के नियमों का व्यवस्थित ज्ञान भी नहीं हो पाएगा। नियमों की जानकारी के अभाव में भाषा की शुद्धता या अशुद्धता का निर्णय लेना भी असम्भव ही है।


(15) भाषा प्रयोगशाला-  

• शिक्षण के क्षेत्र में भाषा प्रयोगशाला भी एक नई विधा है। इसके सम्बन्ध में विद्वानों ने अपने विचार दिए हैं उनसे इसके महत्त्व और उपयोगिता पर प्रकाश पड़ता है। प्रो. एडविन पैकर ने लिखा है कि ‘भाषा प्रयोगशाला विद्युतकीय साज-सज्जा से युक्त एक शिक्षण-कक्ष होता है जिसका उपयोग भाषाओं में समूह-शिक्षण के लिए किया जाता है। कम सज्जित प्रयोगशालाओं में हर एक छात्र के लिए एक-एक पीठिका होती है जो विद्यार्थियों को शोर-गुल से अलग रखती है और हरेक पर शीर्ष- ध्वनि यंत्र रहते हैं जिनकी सहायता से वे बोलते हुए अध्यापक या टेप-रिकॉर्डर या अध्यापक के नियंत्रण में बजने वाले रिकॉर्ड सुनते हैं। अधिक सज्जित प्रयोगशालाओं में लोगों के द्वारा पहने जाने वाले शीर्ष-ध्वनियंत्र एक संलग्नक के साथ फिट रहते हैं जो लोगों के मुख के सामने एक माइक्रोफोन साधे रहते हैं और विद्यार्थी के पास एक टेप-रिकॉर्डर प्राय दोहरे मार्ग और दोहरे रिकॉर्ड के पुन: चलाने वाले शीर्ष के सभी उसके नियंत्रण में होता है। अध्यापक एक ऐसे स्थान पर बैठता है जो ऐसे ढंग से सज्जित होता है कि किसी छात्र के टेप-रिकॉर्ड करने को सुन सके और अनुदेश दे सके तथा वह छात्र के उच्चारण- छात्र-विशेष के द्वारा कहे-सुने गये शब्दों को शुद्ध कर सके।’ इस कथन से स्पष्ट होता है कि भाषा प्रयोगशाला एक विशेष ढंग से तथा यंत्रों के द्वारा सज्जित एक शिक्षण-कक्ष होता है जहाँ भाषा की शिक्षा दी जाती है।


• आधुनिक युग में ज्ञानात्मक विकास वैज्ञानिक एवं यांत्रिक साधनों से हो इसलिए भाषा के शिक्षण तथा हिन्दी के शिक्षण के लिए भी ऐसी सज्जित भाषा प्रयोगशालाओं की स्थापना की जाए। यह सर्वविदित है कि हिन्दी भाषा का शिक्षण काफी पिछड़ा हुआ है और भाषा प्रयोगशाला एक उपयोगी साधन एवं माध्यम है जिससे गद्य, पद्य-नाटक, रचना एवं वैज्ञानिकता के साथ साहित्यिक एवं लोक-भाषा का शुद्ध ज्ञान इस नवीन विधा के द्वारा देना सम्भव है। विदेशी लोगों को हिन्दी भाषा सिखाने के लिए यह विधा अत्यन्त उपयोगी है, परन्तु सबसे बड़ी कठिनाई इस बात की है कि अपने देश में इस ओर शिक्षाविदों एवं भाषा-शिक्षाशास्त्रियों का ध्यान नहीं जा रहा है।


(16) दूरस्थ शिक्षण-

· दूरस्थ शिक्षण से अभिप्राय ‘घर बैठे शिक्षण’ से है। इस शिक्षण में ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षा दी जाती है जो परिस्थिति विशेष के कारण अपनी शिक्षा नियमित नहीं रख पाते हैं अथवा नियमित रूप से विद्यालय परिसर में नहीं जा पाते हैं। ऐसे विद्यार्थियों के लिए पत्राचार शिक्षा, खुला विद्यालय आदि द्वारा शिक्षण कार्य करवाया जाता है।


  दूरस्थ शिक्षा अनेक अर्थों में प्रयोग की जाती है। अर्थों के अनुसार उनके विभिन्न नाम भी प्रचलित हैं। जैसे –

• गृह अध्ययन

• स्वतन्त्र अध्ययन

• पत्राचार शिक्षा

• बहुमाध्यम शिक्षा

• परिसर से बाहर अध्ययन

• मुक्त अधिगम

• बाह्य अध्ययन


दूरस्थ शिक्षा प्रणाली की विशेषताएँ-

• यह प्रणाली छात्रों की आवश्यकताओं, स्तर एवं उनके दैनिक कार्यों से जुड़ी रहती है।

• यह एक लचीली विधि है।

• यह विधि छात्रों के सुनिश्चित एवं विशिष्ट समूह के लिये पूर्व निर्धारित तथा विशिष्ट उद्देश्यों के लिये शिक्षा प्रदान करती है।

• छात्रों की इस विधि द्वारा अपनी इच्छानुसार समय लगाकर, उसकी अपनी योग्यता तथा गति के अनुसार पढ़ने के अवसर मिलते हैं।

• इस विधि में छात्रों के ऊपर बाहर से कुछ थोपा नहीं जाता वरन् जो कुछ सिखाया जाता हैं, छात्र अपने प्रयत्नों से सीखते हैं।

• दूरस्थ शिक्षा की तकनीकों का प्रयोग सभी आयु वर्ग के लोगों को शिक्षित करने के लिये अनेक प्रकार के व्यावसायिक एवं अव्यावसायिक शास्त्रों से सम्बन्धित पाठयक्रमों के शिक्षण हेतु किया जाता है।

• दूरस्थ शिक्षा-स्व अनुदेशन की प्रणाली पर आधारित होती है।

• इसमें शैक्षिक तकनीकी के विभिन्न माध्यमों-मुद्रित तथा अमुद्रित का प्रयोग किया जाता है।

• अनुदेशन सामग्री के अध्ययन का उत्तरदायित्व छात्रों पर अधिक होता है।

• इस प्रणाली में छात्रों को अधिगम शुरू करने और खत्म करने की अपनी क्षमता के अनुसार स्वतन्त्रता होती है।

• यह शिक्षा को देश के दूर-दूर तक के स्थानों तक पहुँचाने का प्रयास करती है।


(17) आगमन विधि-

· आगमन विधि में अनुभवों, प्रयोगों तथा उदाहरणों का विस्तृत अध्ययन करके नियम बनाए जाते हैं। इस विधि द्वारा शिक्षण करते समय शिक्षक बालकों के समक्ष कुछ विशेष परिस्थितियाँ एवं उदाहरण प्रस्तुत करता है। इन उदाहरणों के आधार पर बालक तार्किक ढंग से विचार-विमर्श करते हुए किसी विशेष सिद्धांत, नियम अथवा सूत्र पर पहुँचते हैं। नियमों, सूत्रों आदि का प्रतिपादन करते समय इस विधि में बालक अपने अनुभवों, मानसिक शक्तियों तथा पूर्व ज्ञान का प्रयोग करता है। यह एक सामान्य अनुमान है कि कोई बालक कुछ विशेष परिस्थितियों या उदाहरणों को देखकर या अनुभव करके उनमें पाई जाने वाली एकरूपता को निष्कर्ष के रूप में अपना लेता है। उदाहरण के लिए जलने वाली विभिन्न वस्तुओं के पास गर्मी का अनुभव करके बालक यह धारणा बना लेता है कि जलने वाली वस्तुएँ गर्मी उत्पन्न करती हैं। आगमन विधि इसी प्रकार की अवधारणाओं पर आधारित है। इसलिए इस विधि को आगमन या सामान्यानुमान विधि कहते हैं।


परिभाषा-

· यंग के अनुसार- इस विधि में बालक विभिन्न स्थूल तथ्यों के आधार पर अपनी मानसिक शक्ति का प्रयोग करते हुए स्वयं किसी विशेष सिद्धांत, नियम अथवा सूत्र पर पहुँचता है।

· लैण्डल के अनुसार- जब बालकों के समक्ष अनेक तथ्यों, उदाहरणों एवं वस्तुओं को प्रस्तुत किया जाता है, तत्पश्चात् बालक स्वयं ही निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास करते हैं, तब वह विधि आगमन विधि कहलाती है।


कार्य विधि-

· आगमन विधि द्वारा शिक्षण करते समय उदाहरणों से नियमों की ओर, विशेष से सामान्य की ओर तथा स्थूल से सूक्ष्म की ओर अग्रसर रहते हैं। अत: छात्र स्वयं भिन्न-भिन्न स्थूल तथ्यों के आधार पर अपनी मानसिक शक्ति का प्रयोग करते हुए उदाहरणों के आधार पर किसी निष्कर्ष अथवा सामान्यीकरण पर पहुँचता है। इस प्रक्रिया को ही आगमन की प्रक्रिया कहते हैं।


आगमन विधि के पद/सोपान-

 इस विधि द्वारा शिक्षण करते समय मुख्य रूप से निम्नलिखित पदों सोपानों) का प्रयोग किया जाता है :


(i) विशिष्ट उदाहरणों का प्रस्तुतीकरण

(ii) निरीक्षण करना

(iii) नियमीकरण या सामान्यीकरण करना

(iv) परीक्षण एवं सत्यापन करना


(i) विशिष्ट उदाहरणों का प्रस्तुतीकरण-

· इस सोपान में अध्यापक द्वारा बालकों के समक्ष एक ही प्रकार के कई उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं तथा बालकों की सहायता से उन उदाहरणों का हल (Solution) प्राप्त कर लिया जाता है।


(ii) निरीक्षण करना-

· प्रस्तुत किए गए उदाहरणों का हल ज्ञात करने के बाद बालक उनका निरीक्षण करते हैं तथा अध्यापक के सहयोग से किसी परिणाम या निष्कर्ष पर पहुँचने की चेष्टा करते हैं।


(iii) नियमीकरण या सामान्यीकरण करना-

· प्रस्तुत किए गए उदाहरणों का निरीक्षण करने के बाद अध्यापक तथा बालक तर्कपूर्ण ढंग से विचार-विमर्श करके किसी सामान्य सूत्रों, सिद्धान्त या नियम को निर्धारित करते हैं।


(iv) परीक्षण एवं सत्यापन-

· किसी सामान्य सूत्रों, सिद्धान्त या नियम का निर्धारण करने के पश्चात् बालक अन्य उदाहरणों अथवा समस्यात्मक प्रश्नों की सहायता से निर्धारित नियमों का परीक्षण एवं सत्यापन करते हैं।


  इस प्रकार उपर्युक्त सोपानों का अनुसरण करते हुए बालक आगमन विधि द्वारा ज्ञान अर्जित करते हैं तथा उनकी विभिन्न मानसिक शक्तियों का भी विकास होता है।


आगमन विधि के गुण एवं विशेषताएँ-

यह एक वैज्ञानिक विधि है क्योंकि इस विधि द्वारा अर्जित ज्ञान प्रत्यक्ष तथ्यों पर आधारित होता है।

• इस विधि के द्वारा बालक को नियम, सूत्रों का निर्धारण एवं सामान्यीकरण की प्रक्रिया का ज्ञान हो जाता है।

• इस विधि में बालक स्वयं उदाहरण, निरीक्षण और परीक्षण के द्वारा ज्ञान अर्जित करते हैं, इसलिए इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान अधिक स्थायी होता है।

• आगमन विधि द्वारा बालकों की आलोचनात्मक, निरीक्षण एवं तर्क शक्ति का विकास होता है।

• यह विधि मनोवैज्ञानिक है क्योंकि इसमें मनोविज्ञान के विभिन्न महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का अनुकरण किया जाता है।

• इस विधि द्वारा बालकों को स्वयं कार्य करने की प्रेरणा मिलती है जिससे उनमें आत्म-निरीक्षण तथा आत्म-विश्वास की वृद्धि होती है।

• इस विधि की सहायता से विज्ञान के विभिन्न नियमों, सम्बन्धों, सूत्रों तथा नवीन सिद्धान्तों आदि का प्रतिपादन करने में सहायता मिलती है।

• यह छोटी कक्षाओं के लिए अति उपयोगी एवं उपयुक्त विधि है।

• इसके द्वारा बालकों में विज्ञान के प्रति उत्सुकता एवं रुचि बनी रहती है।

• इस विधि में बालक उदाहरणों की सहायता से स्वयं ज्ञान प्राप्त करते हैं जिसके कारण वे थकान का अनुभव नहीं करते तथा नवीन ज्ञान की प्राप्ति में सक्रिय बने रहते हैं।


आगमन विधि की सीमाएँ या दोष-

· यह बात बिल्कुल सच है कि आगमन विधि भाषा शिक्षण की एक महत्त्वपूर्ण विधि है। बहुत-सी विशेषताएँ व लाभ होते हुए भी इस विधि की अपनी कुछ सीमाएँ (दोष) भी हैं जो निम्नलिखित हैं-

• इस विधि की गति अत्यन्त धीमी है जिससे इसके द्वारा ज्ञान प्राप्ति में समय और परिश्रम अधिक लगता है।

• इस विधि का प्रयोग करने के लिए पर्याप्त बुद्धि, सूझ-बूझ एवं परिश्रम की आवश्यकता होती है। अतः सभी स्तरों के बालकों के लिए इसके द्वारा ज्ञान प्राप्त करना आसान नहीं है।

• यह विधि निम्न कक्षाओं के लिए ही उपयोगी है क्योंकि उच्च कक्षाओं में पाठ्यक्रम इतना विस्तृत होता है कि इस विधि द्वारा सम्पूर्ण ज्ञान सीमित समय में प्राप्त करना संभव नहीं है।

• अनुभवी एवं योग्य अध्यापक ही इस विधि का सफलतापूर्वक प्रयोग कर सकते हैं।

• इस विधि द्वारा बालकों में समस्या समाधान की योग्यता एवं क्षमता में विकास सम्भव नहीं है।

• नियमीकरण अथवा सामान्यीकरण के लिए प्रत्यक्ष उदाहरणों का चयन एवं प्रस्तुतीकरण शिक्षक एवं शिक्षार्थी के लिए आसान काम नहीं है।


• इस विधि द्वारा प्राप्त परिणाम पूर्णतया सत्य नहीं होते, उनकी सत्यता इस बात पर निर्भर करती है कि वह परिणाम कितने उदाहरणों पर आधारित है, क्योंकि कोई भी परिणाम नियम आदि) जितने अधिक विशिष्ट उदाहरणों पर आधारित होता है, उसकी विश्वसनीयता एवं सत्यता उतनी ही अधिक होती है।


(18) निगमन विधि-


· निगमन विधि आगमन विधि के बिल्कुल विपरीत है। इस विधि में निगमन तर्क (Deductive Logic) का प्रयोग किया जाता है। निगमन विधि का प्रयोग मुख्यतः बीजगणित, रेखागणित तथा त्रिकोणमिति में किया जाता है क्योंकि गणित के इन उपविषयों में विभिन्न सम्बन्धों, नियमों और सूत्रों का प्रयोग होता है। व्यावहारिक रूप में प्रत्येक नियम अथवा सूत्रों को सत्यापित करना असम्भव ही होता है। निगमन विधि में अभिधारणाओं (Assumptions), आधारभूत तत्त्वों (Postulates) तथा स्वयंसिद्धियों (axioms) की सहायता ली जाती है। इस विधि का प्रयोग उच्च कक्षाओं के शिक्षण में अधिक किया जाता है।


कार्य विधि-

· निगमन विधि में सूक्ष्म से स्थूल की ओर (Proceed from abstract to concrete), सामान्य से विशिष्ट की ओर (Proceed from general to particular) तथा प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओर या नियम से उदाहरण की ओर (Proceed from general rule to example) अग्रसर होते हैं। इस विधि में बालकों के सम्मुख सूत्रों, नियमों, निष्कर्ष़ों तथा सम्बन्धों आदि को प्रत्यक्ष रूप में प्रस्तुत किया जाता है। बताए गए नियमों, सिद्धान्तों एवं सूत्रों को बालक याद करके कण्ठस्थ कर लेते हैं।


· निगमन विधि में छात्र सीधे सूत्र का प्रयोग करके प्रश्नों को हल कर लेते हैं तथा भविष्य में प्रयोग करने के लिए उन सूत्रों एवं नियमों को याद कर लेते हैं।


निगमन विधि के पद/सोपान-


1. नियम/सूत्र/सिद्धांतों का ज्ञान

2. आँकड़ों के आधार पर परीक्षण

3. सिद्धांतों/सूत्रों का प्रयोग

4. उदाहरणों के आधार पर सिद्धांतों का पूर्ण सत्यापन करना


निगमन विधि के गुण एवं विशेषताएँ-


• इस विधि के प्रयोग से भाषा शिक्षण का कार्य अत्यन्त सरल एवं सुविधाजनक हो जाता है।

• निगमन विधि द्वारा बालकों की स्मरण शक्ति विकसित होती है, क्योंकि इस विधि का प्रयोग करते समय बालकों को अनेक सूत्र याद करने पड़ते हैं।

• इस विधि द्वारा ज्ञानार्जन की गति तीव्र होती है, क्योंकि बालक समस्या हल करते समय सीधे सूत्रों का प्रयोग करते हैं।

• जब समयाभाव हो तो उन परिस्थितियों में इस विधि का उपयोग करना चाहिए।

• रेखागणित में स्वयंसिद्धियों, अंकगणित में पहाड़े आदि को पढ़ाने के लिए इसी विधि का प्रयोग किया जाता है।

• इस विधि का प्रयोग करने पर शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों को कम परिश्रम करना पड़ता है।

• इस विधि द्वारा कम समय में अधिक ज्ञान प्रदान किया जा सकता है।

• इस विधि द्वारा नियमों, सिद्धान्तों एवं सूत्रों की सत्यता की जाँच आसानी से की जा सकती है।

• इस विधि के प्रयोग से बालक अभ्यास कार्य शीघ्रता तथा आसानी से कर सकते हैं।

• यह विधि संक्षिप्त होने के साथ-साथ व्यावहारिक भी है।


निगमन विधि की सीमाएँ या दोष-


  आगमन विधि की भाँति निगमन विधि भी भाषा शिक्षण की एक महत्त्वपूर्ण विधि है, जिसकी अपनी विशेषताएँ हैं परन्तु फिर भी इस विधि में कुछ कमियाँ अथवा सीमाएँ हैं। इस विधि के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं-

• यह विधि मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के विपरीत हैं क्योंकि यह स्मृति-केन्द्रित विधि है।

• यह विधि खोज करने की अपेक्षा रटने की प्रवृत्ति पर अधिक बल देती है।

• इस विधि में बालक यंत्रवत् कार्य करते हैं क्योंकि उन्हें यह पता नहीं रहता कि वे अमुक कार्य इस प्रकार ही क्यों कर रहे हैं?

• इस विधि द्वारा अर्जित किया गया ज्ञान अस्पष्ट एवं अस्थायी होता है, क्योंकि उसे वह अपने स्वयं के प्रयासों से नहीं प्राप्त करते हैं।

• इस विधि में तर्क, चिन्तन एवं अन्वेषण जैसी शक्तियों को विकसित करने का अवसर नहीं मिलता है।

• यह विधि छोटी कक्षाओं के लिए उपयोगी नहीं है, क्योंकि छोटी कक्षाओं के बालकों के लिए विभिन्न सूत्रों, नियमों आदि को समझना बहुत कठिन होता है।

• इस विधि के प्रयोग से अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया अरुचिकर तथा नीरस बनी रहती है।

• इस विधि द्वारा बालकों को नवीन ज्ञान अर्जित करने के अवसर नहीं मिलते हैं।


आगमन एवं निगमन विधि में अन्तर-

· यह हम जानते हैं कि आगमन एवं निगमन विधि एक दूसरे की पूरक हैं, फिर भी दोनों की कार्यविधि, क्रियान्वयन तथा प्रकृति में अन्तर है। इन दोनों विधियों के अन्तर को निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है--

आगमन विधि

निगमन विधि


इस विधि में ‘विशिष्ट से सामान्य’, ‘उदाहरण से नियम’ तथा ‘स्थूल से सूक्ष्म’ की ओर शिक्षण सूत्रों का प्रयोग किया जाता है।

इस विधि में ‘सामान्य से विशिष्ट’, ‘नियम से उदाहरण’ तथा  ‘सूक्ष्म से स्थूल’ की ओर शिक्षण सूत्रों का प्रयोग किया जाता है।

इसमें बालक एक अनुसंधानकर्ता के रूप में कार्य करता है तथा स्वयं सक्रिय रहकर नियम या सूत्र ज्ञात करता है।

इसमें बालक को नियम अथवा सूत्र पहले से बता दिए जाते हैं। बालक खोजे गए नियम अथवा सूत्रों की पुष्टि मात्र ही कर पाता है।

इस विधि द्वारा छात्रों में खोज प्रवृत्ति का विकास होता है।

इसमें छात्रों को खोज प्रवृत्ति विकसित करने का अवसर नहीं मिलता है।


यह अध्यापन (Teaching) की श्रेष्ठ विधि है।

यह अध्ययन या अधिगम (Learning) की श्रेष्ठ विधि है।

आगमन विधि छोटी कक्षाओं के शिक्षण में अधिक उपयोगी है।

यह विधि उच्च कक्षाओं के लिए अधिक उपयोगी है।

इस विधि में बालक स्वयं नियम एवं सूत्रों का निर्धारण करते हैं, जिससे उनमें आत्मविश्वास एवं आत्म-निर्भरता जैसे गुणों का विकास होता है।

इसमें नियम या सूत्रों को पहले बता दिया जाता है जिससे उनमें आत्मविश्वास की कमी रहती है।

यह विधि नवीन ज्ञान की खोज करने में सहायक है

इस विधि में बालक दूसरों के द्वारा दिए गए ज्ञान का प्रयोग करते हैं।

यह एक वैज्ञानिक विधि है जिससे छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास होता है।

इस विधि में बालकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित होने के अवसर नहीं मिलते हैं।

यह विधि खोज या अनुसंधान का मार्ग है।

यह अनुकरण का मार्ग है क्योंकि बालक बताए गए नियमों या सूत्रों का अनुकरण करता है।

इस विधि में शिक्षक व शिक्षार्थी दोनों ही सक्रिय रहते हैं। अत: यह छात्र-केंद्रित विधि है।

इसमें शिक्षक ही अधिक सक्रिय रहता है। शिक्षार्थी एक मूक श्रोता होता है। यह अध्यापक केंद्रित है।

यह विधि मौलिक एवं रचनात्मक कार्यों पर बल देती है।

यह विधि समस्या-समाधान पर अधिक बल देती है।

इस विधि द्वारा अध्ययन की प्रक्रिया रुचिकर हो जाती है।

इसमें अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया नीरस हो जाती है।

इस विधि में प्रत्येक पद या सोपान का महत्त्व होता है तथा बालक उनको लिखना सीख जाते हैं।

इस विधि में बालक बहुत से पदों को लिखना नहीं सीख पाते हैं।

इसकी गति धीमी होती है जिससे परिश्रम व समय अधिक लगता है।

इसकी गति तीव्र होती है जिससे परिश्रम व समय कम लगता है।

यह एक मनोवैज्ञानिक विधि है जो कि अवबोध-केंद्रित है।

यह अपेक्षाकृत अमनोवैज्ञानिक है तथा स्मृति-केंद्रित है।


-

 

आगमन विधि

निगमन विधि

1.

इस विधि में ‘विशिष्ट से सामान्य’, ‘उदाहरण से नियम’ तथा ‘स्थूल से सूक्ष्म’ की ओर शिक्षण सूत्रों का प्रयोग किया जाता है।

इस विधि में ‘सामान्य से विशिष्ट’, ‘नियम से उदाहरण’ तथा  ‘सूक्ष्म से स्थूल’ की ओर शिक्षण सूत्रों का प्रयोग किया जाता है।

2.

इसमें बालक एक अनुसंधानकर्ता के रूप में कार्य करता है तथा स्वयं सक्रिय रहकर नियम या सूत्र ज्ञात करता है।

इसमें बालक को नियम अथवा सूत्र पहले से बता दिए जाते हैं। बालक खोजे गए नियम अथवा सूत्रों की पुष्टि मात्र ही कर पाता है।

3.

इस विधि द्वारा छात्रों में खोज प्रवृत्ति का विकास होता है।

इसमें छात्रों को खोज प्रवृत्ति विकसित करने का अवसर नहीं मिलता है।

4.

यह अध्यापन (Teaching) की श्रेष्ठ विधि है।

यह अध्ययन या अधिगम (Learning) की श्रेष्ठ विधि है।

5.

आगमन विधि छोटी कक्षाओं के शिक्षण में अधिक उपयोगी है।

यह विधि उच्च कक्षाओं के लिए अधिक उपयोगी है।

6.

इस विधि में बालक स्वयं नियम एवं सूत्रों का निर्धारण करते हैं, जिससे उनमें आत्मविश्वास एवं आत्म-निर्भरता जैसे गुणों का विकास होता है।

इसमें नियम या सूत्रों को पहले बता दिया जाता है जिससे उनमें आत्मविश्वास की कमी रहती है।

7.

यह विधि नवीन ज्ञान की खोज करने में सहायक है।

इस विधि में बालक दूसरों के द्वारा दिए गए ज्ञान का प्रयोग करते हैं।

8.

यह एक वैज्ञानिक विधि है जिससे छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास होता है।

इस विधि में बालकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित होने के अवसर नहीं मिलते हैं।

9.

यह विधि खोज या अनुसंधान का मार्ग है।

यह अनुकरण का मार्ग है क्योंकि बालक बताए गए नियमों या सूत्रों का अनुकरण करता है।

10.

इस विधि में शिक्षक व शिक्षार्थी दोनों ही सक्रिय रहते हैं। अत: यह छात्र-केंद्रित विधि है।

इसमें शिक्षक ही अधिक सक्रिय रहता है। शिक्षार्थी एक मूक श्रोता होता है। यह अध्यापक केंद्रित है।

11.

यह विधि मौलिक एवं रचनात्मक कार्यों पर बल देती है।

यह विधि समस्या-समाधान पर अधिक बल देती है।

12.

इस विधि द्वारा अध्ययन की प्रक्रिया रुचिकर हो जाती है।

इसमें अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया नीरस हो जाती है।

13.

इस विधि में प्रत्येक पद या सोपान का महत्त्व होता है तथा बालक उनको लिखना सीख जाते हैं।

इस विधि में बालक बहुत से पदों को लिखना नहीं सीख पाते हैं।

14.

इसकी गति धीमी होती है जिससे परिश्रम व समय अधिक लगता है।

इसकी गति तीव्र होती है जिससे परिश्रम व समय कम लगता है।

15.

यह एक मनोवैज्ञानिक विधि है जो कि अवबोध-केंद्रित है।

यह अपेक्षाकृत अमनोवैज्ञानिक है तथा स्मृति-केंद्रित है।


आगमन एवं निगमन विधि में सम्बन्ध-

· यर्थाथ रूप में आगमन एवं निगमन विधि एक दूसरे की पूरक हैं, इसलिए प्रारम्भ में आगमन विधि द्वारा उदाहरणों की सहायता से नियमों तथा सूत्रों का प्रतिपादन करना चाहिए। उसके बाद निगमन विधि द्वारा उनका उपयोग तथा अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि नियमों एवं सूत्रों को याद करने तथा उनका उचित उपयोग करके समस्याओं को शीघ्रता से हल करने के लिए निगमन विधि ही काम आती है।


· भाषा शिक्षण में आगमन एवं निगमन दोनों विधियाँ उसी प्रकार आवश्यक हैं जिस प्रकार चलने के लिए हमें दोनों पैरों की आवश्यकता होती है। आगमन विधि का प्रमुख आधार ज्ञान की उत्पत्ति एवं विकास है जबकि निगमन विधि में ज्ञान की शाश्वत प्रस्तुति ही मुख्य आधार होती है। अतः आगमन विधि अग्रगामी है तथा निगमन विधि उसकी सहगामी। दोनों ही विधियाँ एक-दूसरे की कमियों को दूर करती हैं।


· इस प्रकार आगमन विधि से सूत्रों तथा नियमों को प्रतिपादित करने के पश्चात् निगमन विधि से आगे बढ़ने तथा अभ्यास करवाने की प्रक्रिया को ही आगमन-निगमन विधि कहते हैं। अतः भाषा शिक्षण सम्बन्धी नवीन तथ्यों, नियमों, सिद्धान्तों और सूत्रों का ज्ञान आगमन विधि द्वारा दिया जाना चाहिए तथा उसका उपयोग व अभ्यास निगमन विधि द्वारा करना चाहिए। दोनों विधियों के समन्वित रूप को निम्न उदाहरण द्वारा और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है।


19. विश्लेषण विधि- -

· यह विधि विश्लेषण प्रक्रिया पर आधारित है। भाषा शिक्षण की समस्याओं के विश्लेषण में हम इस विधि का उपयोग करते हैं। यह विधि रेखागणित में अधिक उपयोगी सिद्ध हुई है। इस विधि की सहायता से किसी भी समस्या के कठिन भाग का विश्लेषण करके यह ज्ञात किया जाता है कि इस समस्या का हल किस प्रकार किया जाए?


· इस प्रकार समस्याओं के विभिन्न भागों का विच्छेदन करने को ही विश्लेषण कहते हैं। जैसे- शब्द से वर्ण की ओर। इस विधि में हम “अज्ञात से ज्ञात की ओर” अथवा ‘निष्कर्षों से ज्ञात तथ्यों की ओर’ चलते हैं। इस विधि में जो ज्ञात करना होता है या सिद्ध करना होता है उससे आरम्भ करते हैं कि इसे ज्ञात करने के लिए या सिद्ध करने के लिए हमें पहले क्या ज्ञात करना चाहिए? इस प्रकार ज्ञात करते-करते जो कुछ दिया जाता है, उस तक पहुँच जाते हैं। जटिल समस्याओं को हल करने के लिए इस विधि का ही प्रयोग करते हैं क्योंकि इसके द्वारा उस समस्या को छोटे-छोटे भागों में बाँट लेते हैं जिसके कारण उसका हल ढूंढ़ना सरल हो जाता है। मुख्यतया इस विधि का प्रयोग अग्रलिखित परिस्थितियों में किया जाता है-


· जब किसी साध्य को हल करना हो।

· जब भाषा शिक्षण में किसी रचना कार्य को हल करना हो।

· जब भाषा शिक्षण में किसी नवीन समस्या को हल करना हो।


  इस विधि में प्रत्येक पद का अपना महत्त्व तथा आधार होता है। इसलिए किसी समस्या का विश्लेषण ठीक प्रकार से करना चाहिए।


विश्लेषण विधि के गुण


· यह विधि मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित है।

· इस विधि में बालक स्वयं अपनी समस्याओं के समाधान के लिए हल ढूंढ़ सकता है।

· किसी प्रमेय की उपपत्ति (Proof) तथा निर्मेय की रचना इस विधि द्वारा ही समझी जा सकती है।

· इस विधि के द्वारा छात्रों में अन्वेषण करने की क्षमता और आत्म-विश्वास में वृद्धि होती है।

· इस विधि से छात्रों में तर्क शक्ति, विचार शक्ति तथा विश्लेषण करने की क्षमता का विकास होता है।

· इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान अधिक स्थायी होता है तथा छात्र नवीन ज्ञान प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहता है।


विश्लेषण विधि के दोष


· यह विधि छोटी कक्षाओं के छात्रों के लिए उपयुक्त है क्योंकि उस समय उनकी तर्कशक्ति तथा विश्लेषण की क्षमता अधिक विकसित नहीं होती है।

· इस विधि द्वारा शिक्षण करने पर पाठ्यक्रम को निर्धारित समय में पूरा नहीं किया जा सकता है।

· इस विधि द्वारा समस्या को हल करने में अधिक समय लगता है क्योंकि विश्लेषण तथा तर्क की प्रक्रिया लम्बी होती है।

· विश्लेषणात्मक विधि का उपयोग तभी संभव है जब हमें ज्ञात तथ्यों तथा अज्ञात निष्कर्षों की जानकारी है।

· प्रत्येक अध्यापक इस विधि के प्रयोग करने में सफल नहीं हो सकता है।


20. संश्लेषण विधि-


· यह विधि संश्लेषण कार्य पर आधारित है। संश्लेषण का अर्थ- “अलग-अलग भागों को जोड़ना है। जैसे- वर्ण से शब्द।” इस विधि में ‘ज्ञात से अज्ञात की ओर’ चलते हैं। जब कोई समस्या सामने आती है तो सबसे पहले दी गई समस्त सूचनाओं को एकत्र करते हैं और फिर उसे हल करते हैं। संश्लेषण में एक तथ्य की सत्यता की जाँच की जाती है, परंतु इससे प्रस्तुत समस्या का वास्तविक रूप ज्ञात नहीं हो पाता है। 

विश्लेषण तथा संश्लेषण विधि में अंतर

 

विश्लेषण विधि

संश्लेषण विधि

1.

इस विधि में छात्रों को नवीन ज्ञान प्राप्त करने के अवसर मिलते हैं।

इसमें छात्रों को पहले से तैयार सामग्री उपलब्ध हो जाती है जिससे उन्हें अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ता है।

2.

इस विधि द्वारा छात्रों में आत्म-निर्भरता तथा आत्म-विश्वास का विकास होता है।

इसमें आत्मनिर्भरता तथा आत्मविश्वास की कमी रहती है क्योंकि छात्र समस्याओं का हल स्वयं नहीं खोजता है।

3.

इस विधि से समस्याओं को शीघ्र एवं स्वच्छता से हल करना सीख सकते हैं।

समस्याओं को शीघ्रता, स्वच्छता और स्पष्टता से हल करने की दृष्टि से यह एक उपयुक्त विधि है।

4.

इस विधि द्वारा इस बात का स्पष्ट उत्तर मिलता है कि रचना का कोई पद या उपपत्ति का कोई पद क्यों लिया गया है?

इस विधि द्वारा केवल यह प्रदर्शित किया जाता है कि उपपत्ति या रचना का प्रत्येक पद सही है, परन्तु सही क्यों है? यह बात स्पष्ट नहीं होती।

5.

विश्लेषण का अर्थ किसी समस्या को उसके विभिन्न भागों से विभाजित करना है।

संश्लेषण का अर्थ समस्या के विभिन्न छोटे-छोटे भागों को एकत्रित करके निर्धारित लक्ष्य की ओर बढ़ना है।

6.

इस विधि के द्वारा खोज करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन मिलता है।

इसमें खोजे गए तथ्यों को संक्षेप में लिखा जाता है।

7.

इस विधि में अज्ञात से ज्ञात की ओर चलते हैं।

इस विधि में ज्ञात से अज्ञात की ओर चलते हैं तथा समस्या में दी गई बातों को आधार मानकर निष्कर्ष प्राप्त करते हैं।

8.

इस विधि में छात्रों को अपनी मानसिक शक्तियों का उपयोग करने का पूर्ण अवसर मिलता है।

इस विधि में बालकों को मानसिक शक्ति के उपयोग के कोई अवसर नहीं मिलते हैं। इसके द्वारा छात्रों को रटने की आदत पड़ती है।

9.

इस विधि में शिक्षक तथा छात्र दोनों ही सक्रिय रहते हैं।

इसमें छात्र निष्क्रिय तथा शिक्षक का चिंतन क्रियाशील रहता है।

10.

यह एक दीर्घ विधि है।

यह एक सूक्ष्म विधि है।

11.

इसमें परिश्रम और समय दोनों ही अधिक लगता है।

इसमें थोड़े परिश्रम तथा समय से ही काम चल जाता है।


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