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Nature of Mathematics and Reasoning for reet

गणित-की-प्रकृति-एवं-तर्क-शक्ति-Nature of Mathematics and Reasoning for reet

Nature-of-Mathematics-and-Reasoning for reet
Nature-of-Mathematics-and-Reasoning

गणित का अर्थ :-

(Meaning of Mathematics)

शाब्दिक अर्थ - वह शास्त्र जिसमें गणना की प्रधानता हों।

परिभाषा - “अंक, अक्षर, चिह्न आदि संक्षिप्त संकेतों का वह विज्ञान है, जिसकी सहायता से परिमाण, दिशा तथा स्थान का बोध होता है।”

  • विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाएँ -

1. मार्शल, एच. स्टोन - “गणित ऐसी अमूर्त व्यवस्था का अध्ययन है जो कि अमूर्त तत्वों से मिलकर बनी है। इन तत्वों को मूर्त रूप में परिभाषित किया गया है।”

2. बर्टेण्ड रसैल - “गणित एक ऐसा विषय है जिसमें हम यह भी नहीं जानते कि हम किसके बारे में बात कर रहे हैं और न ही यह जान पाते हैं कि हम जो कह रहें है, वह सत्य है।

3. गैलीलियो - “गणित वह भाषा है जिसमें परमेश्वर ने सम्पूर्ण जगत या ब्रह्माण्ड को लिख दिया है।”

4. लौक - “गणित वह मार्ग है जिसके द्वारा बच्चों के मन या मस्तिष्क में तर्क करने की आदत स्थापित होती है।”

5. बेन्जामिन पीयर्स - “गणित ऐसा विज्ञान है जो आवश्यक निष्कर्ष पर पहुँचता है।

6. बर्थलॉट - “गणित भौतिक अनुसंधान का एक आवश्यक उपकरण है।

7. हार्वर्ड कमेटी - “गणित को अमूर्त स्वरूप के विज्ञान के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।”

8. आइन्सटीन - “गणित क्या है? यह उस मानव चिंतन का प्रतिफल है जो अनुभवों से स्वतन्त्र है तथा सत्य के अनुरूप है।”

  • सारांशत :-

1. गणित स्थान तथा संख्याओं का विज्ञान है।

2. गणित गणनाओं का विज्ञान है।

3. गणित माप-तौल (मापन), मात्रा (परिमाण) तथा दिशा का विज्ञान है।

4. गणित विज्ञान की क्रमबद्ध, संगठित तथा यथार्थ शाखा है।

5. इसमें मात्रात्मक (Quantitative) तथ्यों और संबंधों का अध्ययन किया जाता है।

6. यह विज्ञान का अमूर्त रूप है।

7. यह तार्किक विचारों का विज्ञान है।

8. गणित के अध्ययन से मस्तिष्क में तर्क करने की आदत स्थापित होती है।

9. यह आगमनात्मक तथा प्रायोगिक विज्ञान है।

10. गणित वह विज्ञान है जिसमें आवश्यक निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

Also read : - Diagnostic and Remedial Teaching in Mathematics - गणित में निदानात्मक परीक्षण एवं उपचारात्मक शिक्षण

गणित की प्रकृति

(Nature of Mathematics)

  • गणित एक मानव निर्मित सुनियोजित, संगठित एवं सुनिश्चित विज्ञान है जिसका आधार तार्किक चिन्तन (Logical Thinking) एवं अंकात्मक समस्यायें (Neumerical Problems) हैं। जो मानव जीवन व ज्ञान का गणनात्मक पक्ष (Quantitative aspect) है और जिसका आधार मात्रा (Quantity) एवं स्थान (Space) है और जो मात्रात्मक सम्बन्धों का प्रयोग समस्या समाधान हेतु करता है।

उपरोक्त अवधारणा के अनुसार गणित की प्रकृति का विश्लेषण निम्न आधारभूत विशेषताओं के आधार पर किया जा सकता है-

1. शुद्धता (Accuracy) – गणित का सबसे महत्वपूर्ण आधार शुद्धता के प्रति उसकी प्रतिबद्धता है। अन्य विषयों की अपेक्षा गणित का लगाव शुद्धता के प्रति बहुत अधिक है। जहाँ इस सन्दर्भ में अन्य विषय न्यूनाधिक विचलन को स्वीकार कर लेते हैं, वहीं गणित इस प्रकार की स्वीकृति हेतु किसी भी स्थिति में तत्पर नहीं होता है। शुद्धता के प्रति प्रतिबद्धता की शिक्षक व छात्र दोनों के व्यवहारों में परिलक्षित होती है। छात्र को जहाँ एक ओर अपने उत्तर को शुद्ध अथवा अशुद्ध रूप में ही स्वीकार करने की मनःस्थिति बनानी पड़ती है, और जहाँ वह इच्छा होते हुए भी अपने उत्तर को कोई अन्य अर्थ नहीं दे सकता वहीं शिक्षक के लिये भी अपनी रुचि अथवा अरुचि से प्रभावित होकर निर्णय करना असम्भव नहीं है।

2. सरलता (Simplicity) – पाठ्यवस्तु की सरलता के दृष्टिकोण से यदि अवलोकन किया जाये तो यथार्थ में गणित सरलतम है। केवल चार आधारभूत गणनाओं (Four Fundamental operations) तक ही इसकी सारी पाठ्यवस्तु सीमित है। गणित की सरलता को देखकर प्रसिद्ध दार्शनिक हैमिल्टन ने व्यंग्य से कहा था कि, “गणित का अध्ययन इतना सरल है कि इसके लिये किसी यथार्थ मानसिक शक्ति की आवश्यकता नहीं है।” (The study of mathematics is so easy than it affords no real mental discipline) यह विडम्बना ही है कि सबसे सरल विषय सबसे कठिन माना जाता है, जबकि यही एकमात्र ऐसा विषय है जिसमें छात्रों को स्वयमेव ही सिद्धान्तों का प्रयोग कर समस्या समाधान का अवसर प्राप्त होता है। यदि वह केवल-सरल से जटिल की ओर चलने का ही अभ्यास कर लें तो अधिकांश गणितीय समस्याओं को हल करने में सक्षम हो जायेंगे।

3. परिणामों की निश्चितता (Certainity of Result) - सामान्यतः अधिकांश विषयों में निकाले गये परिणामों में एकरूपता नहीं होती है। इसका प्रमुख कारण व्यक्तिनिष्ठता (Subjectivity) और व्यक्तिगत रुचि या अरुचि (Personal bias) का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। सामान्यतः व्यक्ति जिस चीज को जिस प्रकार देखने की इच्छा करता है, उसे उसी रूप में थोड़ा अचेतन रूप में तोड़-मरोड़ देता है। गणित इस विकृति से बचा हुआ है। इसके द्वारा निकाले गये परिणाम पूर्णतया वस्तुनिष्ठ (Objective) होते हैं। वे निश्चित होते हैं। यही कारण है कि गणित आंशिक सत्य (Partial truth) को स्वीकार नहीं करता है।

4. मौलिकता (Originality) - अधिकांश विषयों की प्रकृति स्मृति केन्द्रित होती है। उनका आधारपूर्व अर्जित तथ्यों, सूत्रों अथवा सिद्धान्तों का अक्षरशः पुनःस्मरण करने की क्षमता में होता है। स्वाभाविक रूप से ज्ञान का संरक्षण (Preservation) तो हो जाता है, किन्तु उसमें संवर्धन सीमित ही हो पाता है। गणित की स्थिति भिन्न है, यह तथ्यों के पुनःस्मरण पर ही आधारित नहीं रहता वरन् बोध केन्द्रित (Comprehension Centred) और प्रयोग केन्द्रित होता है। प्रसिद्ध गणितज्ञ हब्श (Habsch) के अनुसार, “गणित मस्तिष्क को तीक्ष्ण एवं तीव्र बनाने का वही काम करता है जो किसी औजार को तेज करने में काम आने वाला पत्थर। इसके अध्ययन से स्पष्ट तर्कसम्मत एवं क्रमबद्ध रूप से मौलिक चिन्तन की शक्ति प्राप्त होती है।”

5. परिणाम का सत्यापन (Verification of Result) - किसी भी विषय को तभी विज्ञान माना जा सकता है जबकि उसके द्वारा निकाले गये परिणाम समान परिस्थितियों में किसी के भी द्वारा सत्यापित किये जा सकें। उनमें व्यक्ति, समय व स्थान के कारण किसी प्रकार का अन्तर न आये। इस कसौटी पर गणित पूर्णतया खरा उतरता है। चाहे कोई भी गणना करे, कहीं भी करे और कभी भी करे, यदि आँकड़े समान हैं तो परिणाम निश्चित रूप से वही आयेगा। इसी गुण के कारण गणित में छात्र स्वमूल्यांकन कर सकता है जिसके परिणामस्वरूप उसमें आत्म-विश्वास विकसित होता है।

6. संक्षिप्तता (Precision) - शिक्षण का माध्यम सम्प्रेषण (Communication) है। सम्प्रेषण में यदि उचित भाषा का चयन न किया गया तो अर्थ का अनर्थ हो सकता है। कभी-कभी किसी शब्द का सर्वमान्य अर्थ न होना भी भ्रम उत्पन्न कर देता है। यही स्थिति यदि आवश्यकता से अधिक शब्दों का प्रयोग किया जाये तो हो सकती है। इस कारण सम्प्रेषण में भाषा का उतना ही प्रयोग करना चाहिये जितना आवश्यक हो, गणित में क्योंकि अंकों, रेखाचित्रों आदि की सांकेतिक भाषा का प्रयोग होता है। इस कारण वह भ्रम रहित सम्प्रेषण अधिक मात्रा में और कम समय में कर सकता है।

पाठ्यवस्तु के दृष्टिकोण से भी यदि देखा जाये तो गणित की पाठ्यवस्तु की अपनी विशिष्ट प्रकृति स्पष्ट परिलक्षित होती है। इसके परिणामस्वरूप इसकी प्रकृति व स्वरूप विशिष्ट हो जाता है।

  • सारांशतः गणित की प्रकृति को निम्न बिन्दुओं द्वारा भली-भाँति समझा जा सकता है-

(1) गणित में संख्यायें, स्थान, दिशा तथा मापन या माप-तौल का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।

(2) गणित की अपनी भाषा है। भाषा का तात्पर्य-गणितीय पद, गणितीय प्रत्यय, सूत्र, सिद्धान्त तथा संकेतों से है जो कि विशेष प्रकार के होते हैं तथा गणित की भाषा को जन्म देते हैं।

(3) गणित के ज्ञान का आधार हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं।

(4) इसके ज्ञान का आधार निश्चित होता है जिससे उस पर विश्वास किया जा सकता है।

(5) गणित का ज्ञान यथार्थ, क्रमबद्ध, तार्किक तथा अधिक स्पष्ट होता है, जिससे उसे एक बार ग्रहण करके आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।

(6) गणित में अमूर्त प्रत्ययों को मूर्त रूप में परिवर्तित किया जाता है, साथ ही उनकी व्याख्या भी की जाती है।

(7) गणित के नियम, सिद्धान्त, सूत्र सभी स्थानों पर एक समान होते हैं जिससे उनकी सत्यता की जाँच किसी भी समय तथा स्थान पर की जा सकती है।

(8) इसमें सम्पूर्ण वातावरण में पायी जाने वाली वस्तुओं के परस्पर सम्बन्ध तथा संख्यात्मक निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

(9) इसके अध्ययन से प्रत्येक ज्ञान तथा सूचना स्पष्ट होती है तथा उसका एक सम्भावित उत्तर निश्चित होता है।

(10) इसके विभिन्न नियमों, सिद्धान्तों, सूत्रों आदि में सन्देह की सम्भावना नहीं रहती है।

(11) गणित के अध्ययन से आगमन निगमन तथा सामान्यीकरण की योग्यता विकसित होती है।

(12) गणित के अध्ययन से बालकों में आत्म-विश्वास और आत्म-निर्भरता का विकास होता है।

(13) गणित की भाषा सुपरिभाषित, उपयुक्त तथा स्पष्ट होती है।

(14) गणित के ज्ञान से बालकों में प्रशंसात्मक दृष्टिकोण तथा भावना का विकास होता है।

(15) इससे बालकों में स्वस्थ तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित होता है।

(16) इसमें प्रदत्तों अथवा सूचनाओं (संख्यात्मक) को आधार मानकर संख्यात्मक निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

(17) गणित के ज्ञान का उपयोग विज्ञान की विभिन्न शाखाओं यथा-भौतिकी, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान तथा अन्य विषयों के अध्ययन में किया जाता है।

(18) गणित, विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के अध्ययन में सहायक ही नहीं; बल्कि उनकी प्रगति तथा संगठन की आधारशिला है।

Also read :- Language of Mathematics, Community Mathematics, Importance of Mathematics in the syllabus

तर्क शक्ति/तार्किक सोच

(Reasoning/Logical Thinking)

  • तर्क, युक्तिसंगत एवं नियमित चिंतन का ही एक रूप है, जिसकी सामग्री भूतकालीन पुनःस्मरण किये हुए अनुभव हैं। व्यक्ति के मस्तिष्क में तर्क तब उत्पन्न होता है, जब उसे किसी समस्या का सामना करनापड़ता है। युक्तिसंगत तर्क करने की शक्ति को तर्क शक्ति कहते हैं। तर्कशक्ति व्यक्ति की एक निश्चित एवं क्रमबद्ध सोच है, जो समस्याओं का समाधान देती है तथा जिसके माध्यम से हम उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं।
  • तर्क प्रयास एवं त्रुटि की भाँति होता है, लेकिन इसमें भौतिक अन्वेषण की जगह मस्तिष्क की सहायता से अन्वेषण किया जाता है। तर्क शक्ति के माध्यम से समस्या के सुलझाने में समय एवं श्रम की बचत होती है।
  • तर्क शक्ति धीरे-धीरे बढ़ती है। इसका विकास शनैःशनैः बालक की आयु के अनुसार होता है। बालक स्कूल जाने की आयु के पूर्व से ही अपने स्तर की समस्याओं को सुलझाने की तर्क शक्ति (क्षमता) से युक्त हो जाते हैं।
  • तर्कशक्ति का प्रयोग हमारे दैनिक जीवन में जाने-अनजाने में खूब होता है। जटिल पहेलियों को हम खेल-खेल में ही सुलझा देते हैं;  दो या दो से अधिक वस्तुओं के बीच समानता या सादृश्यता आसानी से ढूँढ़ लेते हैं, यहां तक कि दो मनुष्यों के व्यवहार एवं सोच तथा उनके व्यक्तित्व के तुलनात्मक पहलू को भी सहजता से उजागर कर देते हैं। जीवन में कुछ लोग काफी सहजता से आगे बढ़ते हैं और देखते-देखते निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। परन्तु, इसके ठीक विपरीत कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो केवल सोचते ही रह जाते हैं और स्वयं को द्वंद्व से उबार नहीं पाते। इसका मुख्य कारण उनकी तर्कशक्ति ही है। जिस व्यक्ति की तर्कशक्ति अच्छी होती है, वह समस्याओं का शीघ्र ही निदान कर लेता है और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ जाता है, जबकि तर्कशक्ति में कमजोर व्यक्ति अनिर्णय की सी स्थिति में रहता है या सही समय पर सही निर्णय नहीं ले पाता।
  • आज एक घरेलू महिला से लेकर सार्वजनिक क्षेत्र एवं निजी क्षेत्र के बड़े-बड़े उपक्रम अपने कार्य़ों को अपनी तर्कशक्ति के माध्यम से ही बेहतर ढंग से सम्पन्न करते हैं।
  • संभवतः यही कारण है कि आज अच्छे-अच्छे, स्कूलों, व्यावसायिक पाठ्यक्रमों अथवा प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश हेतु अथवा रोजगार प्राप्ति हेतु आयोजित होने वाली प्रायः एकदिवसीय या वस्तुनिष्ठ प्रकार की परीक्षाओं में तर्कशक्ति परीक्षण का महत्त्व काफी बढ़ गया है।
  • तर्कशक्ति चिंतन का उत्कृष्ट रूप एवं जटिल मानसिक प्रक्रिया है। पशु और मानव इसका अनुभव किये बिना तर्कशक्ति का प्रयोग करते रहते हैं। एक पालतू कुत्ता अपने मालिक को कार में बैठ कर जाते हुए देखकर स्वयं घर में वापस अंदर आ जाता है। एक बालक खिलौने वाले या आइसक्रीम वाले की आवाज सुनकर तुरंत घर से बाहर आ जाता है। इन सभी क्रियाओं का आधार तर्कशक्ति ही है।

  • तर्कशक्ति की परिभाषा -

मन के अनुसार, “तर्क उस समस्या को हल करने के लिए अतीत के अनुभवों को सम्मिलित रूप प्रदान करता है जिसको केवल पिछले समाधानों का प्रयोग करके हल नहीं किया जा सकता है।”

स्किनर के अनुसार, “तर्क, शब्द का प्रयोग कारण और प्रभाव के सम्बन्धों की मानसिक स्वीकृति व्यक्त करने के लिए किया जाता है। यह किसी अवलोकित कारण से एक घटना की भविष्यवाणी या किसी अवलोकित घटना के किसी कारण का अनुमान हो सकती है।”

  • तर्क के सोपान - प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जॉन डयूवी के अनुसार तर्कशक्ति के पाँच सोपान होते हैं-
  • समस्या की उपस्थिति
  • समस्या की जानकारी
  • समस्या समाधान के उपाय
  • उपाय का चुनाव
  • उपाय का उपयोग

तर्क दो प्रकार के होते हैं-

1. आगमन

2. निगमन

आगमन तर्क/विधि (Inductive Logic/Method)

आगमन विधि में अनुभवों, प्रयोगों तथा उदाहरणों का विस्तृत अध्ययन करके नियम बनाये जाते हैं। इस विधि द्वारा शिक्षण करते समय शिक्षक बालकों के समक्ष कुछ विशेष परिस्थितियाँ एवं उदाहरण प्रस्तुत करता है। इन उदाहरणों के आधार पर बालक तार्किक ढंग से विचार-विमर्श करते हुए किसी विशेष सिद्धान्त (Principle), नियम (Law) अथवा सूत्रा (Formula) पर पहुँचते हैं। नियमों, सूत्रों आदि का प्रतिपादन करते समय इस विधि में बालक अपने अनुभवों, मानसिक शक्तियों तथा पूर्व-ज्ञान (Previous Knowledge) का प्रयोग करता है। यह एक सामान्य अनुमान है कि कोई बालक कुछ विशेष परिस्थितियों या उदाहरणों को देखकर या अनुभव करके उनमें पाइ जाने वाली एकरूपता को निष्कर्ष के रूप में अपना लेता है। उदाहरण के लिए जलने वाली विभिन्न वस्तुओं के पास गर्मी का अनुभव करके बालक यह धारणा बना लेता है कि जलने वाली वस्तुएँ गर्मी उत्पन्न करती हैं। आगमन विधि इसी प्रकार की अवधारणाओं पर आधारित है। इसलिए इस विधि को आगमन या सामान्यानुमान विधि (Inductive Method) कहते हैं।

परिभाषा (Definition) :

1. यंग (Young) के अनुसार- "इस विधि में बालक विभिन्न स्थूल तथ्यों (concrete facts) के आधार पर अपनी मानसिक शक्ति का प्रयोग करते हुए स्वयं किसी विशेष सिद्धान्त, नियम अथवा सूत्रा पर पहुँचता है।"

2. लैण्डल के अनुसार-"जब बालकों के समक्ष अनेक तथ्यों, उदाहरणों एवं वस्तुओं को प्रस्तुत किया जाता है, तत्पश्चात् बालक ही निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास करते हैं, तब वह विधि आगमन विधि कहलाती है।"

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि आगमन विधि में बालक स्वयं तथ्यों, प्रयोगों एवं उदाहरणों की सहायता से किसी सूत्रा या नियम विशेष का ज्ञान प्राप्त करता है तथा पूर्णरूप से सक्रिय रहता है। अतः इस विधि द्वारा अर्जित किया गया ज्ञान ठोस एवं अधिक स्थाई (Solid and durable) होता है। साथ ही बालक की विभिन्न मानसिक शक्तियों का विकास भी होता है।

कार्य विधि (Procedure) : आगमन विधि द्वारा शिक्षण करते समय उदाहरणों से नियमों की ओर (Proceed from examples to general rules), विशेष से सामान्य की ओर (Proceed from Particular to general) तथा स्थूल से सूक्ष्म की ओर (Proceed from concrete to abstract) अग्रसर रहते हैं। अतः छात्रा स्वयं भिन्न-भिन्न स्थूल तथ्यों (Concrete facts) के आधार पर अपनी मानसिक शक्ति का प्रयोग करते हुए उदाहरणों के आधार पर किसी निष्कर्ष (Conclusion) अथवा सामान्यीकरण (Generalization) पर पहुँचता है। इस प्रक्रिया को ही आगमन की प्रक्रिया (Process of Induction) कहते हैं।

आगमन विधि के पद/सोपान (Steps in Inductive Method) –

इस विधि द्वारा शिक्षण करते समय मुख्यरूप से निम्नलिखित पदों (सोपानों) का प्रयोग किया जाता है :

(i) विशिष्ट उदाहरणों का प्रस्तुतीकरण

(ii) निरीक्षण करना

(iii) नियमीकरण या सामान्यीकरण करना

(iv) परीक्षण एवं सत्यापन करना

(i) विशिष्ट उदाहरणों का प्रस्तुतीकरण (Presentation of Specific Examples) – इस सोपान में अध्यापक द्वारा बालकों के समक्ष एक ही प्रकार के कई उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं तथा बालकों की सहायता से उन उदाहरणों का हल (Solution) प्राप्त कर लिया जाता है।

(ii) निरीक्षण करना (Observation) – प्रस्तुत किये गये उदाहरणों का हल ज्ञात करने केबाद बालक उनका निरीक्षण करते हैं तथा अध्यापक के सहयोग से किसी परिणाम या निष्कर्ष पर पहुँचने की चेष्टा करते हैं।

(iii) नियमीकरण या सामान्यीकरण करना (Generalization) – प्रस्तुत किये गये उदाहरणों का निरीक्षण करने के बाद अध्यापक तथा बालक तर्कपूर्ण ढंग से विचार-विमर्श करके किसी सामान्य सूत्रा, सिद्धान्त या नियम को निर्धारित करते हैं।

(iv) परीक्षण एवं सत्यापन (Testing and Verification) – किसी सामान्य सूत्रा, सिद्धान्त या नियम का निर्धारण करने के पश्चात् बालक अन्य उदाहरणों अथवा समस्यात्मक प्रश्नों की सहायता से निर्धारित नियमों का परीक्षण एवं सत्यापन करते हैं।

इस प्रकार उपरोक्त सोपानों का अनुसरण करते हुए बालक आगमन विधि द्वारा ज्ञान अर्जित करते हैं तथा उनकी विभिन्न मानसिक शक्तियों का भी विकास होता है।

आगमन विधि के गुण एवं विशेषतायें [Merits of Inductive Method]

1. यह एक वैज्ञानिक विधि है क्योंकि इस विधि द्वारा अर्जित ज्ञान प्रत्यक्ष तथ्यों पर आधारित होता है।

2. इस विधि के द्वारा बालक को नियम, सूत्रों का निर्धारण एवं सामान्यीकरण की प्रक्रिया का ज्ञान हो जाता है।

3. इस विधि में बालक स्वयं उदाहरण, निरीक्षण और परीक्षण के द्वारा ज्ञान अर्जित करते हैं, इसलिए इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान अधिक स्थाई होता है।

4. आगमन विधि द्वारा बालकों की आलोचनात्मक, निरीक्षण एवं तर्क शक्ति का विकास होता है।

5. यह विधि मनोवैज्ञानिक है क्योंकि इसमें मनोविज्ञान के विभिन्न महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का अनुकरण किया जाता है।

6. इस विधि द्वारा बालकों को स्वयं कार्य करने की प्रेरणा मिलती है जिससे उनमें आत्म-निरीक्षण तथा आत्म-विश्वास की वृद्धि होती है।

7. इस विधि की सहायता से गणित के विभिन्न नियमों, सम्बन्धों, सूत्रों तथा नवीन सिद्धान्तों आदि का प्रतिपादन करने में सहायता मिलती है।

8. यह छोटी कक्षाओं के लिए अति उपयोगी एवं उपयुक्त विधि है।

9. इसके द्वारा बालकों में गणित के प्रति उत्सुकता एवं रुचि बनी रहती है।

10. इस विधि में बालक उदाहरणों की सहायता से स्वयं ज्ञान प्राप्त करते हैं जिसके कारण वे थकान का अनुभव नहीं करते तथा नवीन ज्ञान की प्राप्ति में सक्रिय बने रहते हैं।

आगमन विधि की सीमाएँ या दोष

(Limitations or Demerits of Inductive Method)

यह बात बिल्कुल सच है कि आगमन विधि गणित शिक्षण की एक महत्वपूर्ण विधि है। बहुत सी विशेषतायें (लाभ) होते हुए भी इस विधि की अपनी कुछ सीमायें (दोष) भी हैं जो निम्नलिखित हैं-

1. इस विधि की गति अत्यन्त धीमी है जिससे इसके द्वारा ज्ञान प्राप्ति में समय और परिश्रम अधिक लगता है।

2. इस विधि का प्रयोग करने के लिए पर्याप्त बुद्धि, सूझ-बूझ एवं परिश्रम की आवश्यकता होती है। अतः सभी स्तरों के बालकों के लिए इसके द्वारा ज्ञान प्राप्त करना आसान नहीं है।

3. यह विधि निम्न कक्षाओं के लिए ही उपयोगी है क्योंकि उच्च कक्षाओं में पाठ्यक्रम इतना विस्तृत होता है कि इस विधि द्वारा सम्पूर्ण ज्ञान सीमित समय में प्राप्त करना संभव नहीं है।

4. अनुभवी एवं योग्य अध्यापक ही इस विधि का सफलतापूर्वक प्रयोग कर सकते हैं।

5. इस विधि द्वारा बालकों में समस्या समाधान की योग्यता एवं क्षमता में विकास सम्भव नहीं है।

6. नियमीकरण अथवा सामान्यीकरण के लिए प्रत्यक्ष उदाहरणों का चयन एवं प्रस्तुतीकरण शिक्षक एवं शिक्षार्थी के लिए आसान काम नहीं है।

7. इस विधि द्वारा प्राप्त परिणाम पूर्णतया सत्य नहीं होते, उनकी सत्यता इस बात पर निर्भर करती है कि वह परिणाम कितने उदाहरणों पर आधारित है, क्योंकि कोई भी परिणाम (नियम आदि) जितने अधिक विशिष्ट उदाहरणों पर आधारित होता है, उसकी विश्वसनीयता एवं सत्यता उतनी ही अधिक होती है।

निगमन तर्क/विधि (Deductive Logic/Method)

निगमन विधि आगमन विधि के बिल्कुल विपरीत है। इस विधि में निगमन तर्क (Deductive Logic) का प्रयोग किया जाता है। निगमन विधि का प्रयोग मुख्यतः बीजगणित, रेखागणित तथा त्राकोणमिति में किया जाता है क्योंकि गणित के इन उपविषयों में विभिन्न सम्बन्धों, नियमों और सूत्रों का प्रयोग होता है। व्यावहारिक रूप में प्रत्येक नियम अथवा सूत्रा को सत्यापित करना असम्भव ही होता है। निगमन विधि में अभिधारणाओं (Assumptions), आधारभूत तत्वों (Postulates) तथा स्वयंसिद्धियों (axioms) की सहायता ली जाती है। इस विधि का प्रयोग उच्च कक्षाओं के शिक्षण में अधिक किया जाता है।

कार्य विधि (Procedure) : निगमन विधि में सूक्ष्म से स्थूल की ओर (Proceed from abstract to concrete), सामान्य से विशिष्ट की ओर (Proceed from general to particular) तथा प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओर या नियम से उदाहरण की ओर (Proceed from general rule to example) अग्रसर होते हैं। इस विधि में बालकों के सम्मुख सूत्रों, नियमों, निष्कर्ष़ों तथा सम्बन्धों आदि को प्रत्यक्ष रूप में प्रस्तुत किया जाता है। बताये गये नियमों, सिद्धान्तों एवं सूत्रों को बालक याद करके कण्ठस्थ कर लेते हैं। सामान्यतः अध्यापक बालकों को निम्न प्रकार की बातें बताते हैं-

(i) (a + b)2 = a2 + b2 + 2ab आदि सूत्रों का ज्ञान।

(ii) किसी त्राभुज के तीनों कोणों का योग दो समकोण या 180º होता है।

(iii) किसी वृत्त का क्षेत्राफल =  आदि ज्यामितीय सूत्रों का ज्ञान।

(v) इसी प्रकार त्राकोणमिति में भी sin\,\theta\,=\frac{1}{cosec\,\theta} और tan\,\theta\,=\frac{sin\,\theta}{cos\,\theta}  आदि सूत्रों का ज्ञान।

निगमन विधि में छात्रा सीधे सूत्रा का प्रयोग करके प्रश्नों को हल कर लेते हैं तथा भविष्य में प्रयोग करने के लिए उन सूत्रों एवं नियमों को याद कर लेते हैं।

निगमन विधि के पद/सोपान (Steps in Deductive Method) -

1. नियम/सूत्रों/सिद्धांतों का ज्ञान

2. आँकड़ों के आधार पर परीक्षण

3. सिद्धांतों/सूत्रों का प्रयोग

4. उदाहरणों के आधार पर सिद्धांतों का पूर्ण सत्यापन करना

निगमन विधि के गुण एवं विशेषताऐं

(Merits of Deductive Method)

1. इस विधि के प्रयोग से गणित का कार्य अत्यन्त सरल एवं सुविधाजनक हो जाता है।

2. निगमन विधि द्वारा बालकों की स्मरण शक्ति विकसित होती है, क्योंकि इस विधि का प्रयोग करते समय बालकों को अनेक सूत्रों याद करने पड़ते हैं।

3. इस विधि द्वारा ज्ञानार्जन की गति तीव्र होती है, क्योंकि बालक समस्या हल करते समय सीधे सूत्रों का प्रयोग करते हैं।

4. जब समयाभाव हो तो उन परिस्थितियों में इस विधि का उपयोग करना चाहिए।

5. रेखागणित में स्वयंसिद्धियों, अंकगणित में पहाड़े आदि को पढ़ाते के लिए इसी विधि का प्रयोग किया जाता है।

6. इस विधि का प्रयोग करने पर शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों को कम परिश्रम करा पड़ता है।

7. इस विधि द्वारा कम समय में अधिक ज्ञान प्रदान किया जा सकता है।

8. इस विधि द्वारा नियमों, सिद्धान्तों एवं सूत्रों की सत्यता की जाँच आसानी से की जा सकती है।

9. इस विधि के प्रयोग से बालक अभ्यास कार्य शीघ्रता तथा आसानी से कर सकते हैं।

10. यह विधि संक्षिप्त होने के साथ-साथ व्यावहारिक भी है।

निगमन विधि की सीमायें या दोष

(Limitations or Demerits of Deductive Method)

आगमन विधि की भाँति निगमन विधि भी गणित शिक्षा की एक महत्वपूर्ण विधि है, जिसकी अपनी विशेषतायें हैं, परन्तु फिर भी इस विधि में कुछ कमियाँ अथवा सीमायें हैं। इस विधि के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं-

1. यह विधि मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के विपरीत हैं क्योंकि यह स्मृति-केन्द्रित विधि है।

2. यह विधि खोज करने की अपेक्षा रटने की प्रवृत्ति पर अधिक बल देती है।

3. इस विधि में बालक यंत्रावत् कार्य करते हैं क्योंकि उन्हें यह पता नहीं रहता कि वे अमुक कार्य इस प्रकार ही क्यों कर रहे हैं ?

4. इस विधि द्वारा अर्जित किया गया ज्ञान अस्पष्ट एवं अस्थाई होता है, क्योंकि उसे वह अपने स्वयं के प्रयासों से नहीं प्राप्त करते हैं।

5. इस विधि में तर्क, चिन्तन एवं अन्वेषण जैसी शक्तियों को विकसित करने का अवसर नहीं मिलता है।

6. यह विधि छोटी कक्षाओं के लिए उपयोगी नहीं है, क्योंकि छोटी कक्षाओं के बालकों के लिए विभिन्न सूत्र,नियमों आदि को समझना बहुत कठिन होता है।

7. इस विधि के प्रयोग से अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया अरुचिकर तथा नीरस बनी रहती है।

8. इस विधि द्वारा बालकों को नवीन ज्ञान अर्जित करने के अवसर नहीं मिलते हैं।

आगमन एवं निगमन विधि में अन्तर

(Difference between Inductive and Deductive Method)

यह हम जानते हैं कि आगमन एवं निगमन विधि एक दूसरे की पूरक हैं, फिर भी दोनों की कार्यविधि, क्रियान्वयन तथा प्रकृति में अन्तर है। इन दोनों विधियों के अन्तर को निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

आगमन एवं निगमन विधि में सम्बन्ध

[Relationship between Inductive and Deductive Method]

यर्थाथ रूप में आगमन एवं निगमन विधि एक दूसरे की पूरक हैं, इसलिए प्रारम्भ में आगमन विधि द्वारा उदाहरणों की सहायता से नियमों तथा सूत्रों का प्रतिपादन करना चाहिए। उसके बाद निगमन विधि द्वारा उनका उपयोग तथा अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि गणितीय नियमों एवं सूत्रों को याद करने तथा उनका उचित उपयोग करके समस्याओं को शीघ्रता से हल करने के लिए निगमन विधि ही काम आती है।

गणित शिक्षण में आगमन एवं निगमन दोनों विधियाँ उसी प्रकार आवश्यक हैं जिस प्रकार चलने के लिए हमें दोनों पैरों की आवश्यकता होती है। आगमन विधि का प्रमुख आधार ज्ञान की उत्पत्ति एवं विकास है जबकि निगमन विधि में ज्ञान की शाश्वत प्रस्तुति ही मुख्य आधार होती है। अतः आगमन विधि अग्रगामी है तथा निगमन विधि उसकी सहगामी। दोनों ही विधियाँ एक-दूसरे की कमियों को दूर करती हैं।

इस प्रकार आगमन विधि से सूत्रों तथा नियमों को प्रतिपादित करने के पश्चात् निगमन विधि से आगे बढ़ने तथा अभ्यास कराने की प्रक्रिया को ही आगमन-निगमन विधि (Inductive-Deductive Method) कहते हैं। अतः गणित विषय सम्बन्धी नवीन तथ्यों, नियमों, सिद्धान्तों और सूत्रों का ज्ञान आगमन विधि द्वारा दिया जाना चाहिए तथा उसका उपयोग व अभ्यास निगमन विधि द्वारा करना चाहिए। दोनों विधियों के समन्वित रूप को निम्न उदाहरण द्वारा और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है

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