Varna vichar in sanskrit for reet
वर्ण विचार
वर्ण विचार |
संस्कृत शब्द की उत्पत्ति सम् उपसर्ग पूर्वक कृ धातु व क्त प्रत्यय के योग से हुई है।
सम् + कृ + क्त (भूतकाल)
उपसर्ग धातु प्रत्यय
- संस्कृत भाषा सभी भाषाओं की जननी कहलाती है।
- संस्कृत भाषा को ‘देवभाषा' देववाणी, भारती इत्यादि नाम से भी जाना जाता है।
- संस्कृत भाषा में उपसर्गो की संख्या = 22 (द्वाविंशति)
संस्कृत के त्रिमुनि
1. पाणिनी- ‘सूत्रकार' 2. कात्यायन (वररुचि)- वार्तिककार
3. पतञ्जलि - महाभाष्यकार
पाणिनी- ‘सूत्रकार'
इनको प्राथमिक या प्रथम मुनि भी कहा जाता है।
जन्म - पाकिस्तान देश में लाहौर के समीप शालातुर ग्राम में।
गुरु - उपवर्ष
पिता - पणिन्
माता- दाक्षी
कृति- अष्टाध्यायी।
- इसमें आठ अध्याय व प्रत्येक अध्याय में 4 (चत्वारः) पाद, कुल पादों की संख्या 32 (द्वात्रिंशत्)।
- अष्टाध्यायी कृति में लगभग 3978 सूत्र हैं।
कात्यायन (वररुचि)-वार्तिककार
- इन्हें ‘वार्तिककार' भी कहते हैं।
- कृतियाँ- वार्तिक, स्वर्गारोहण, कण्ठाभरण
पतंजलि-महाभाष्यकार
- इनको ‘महाभाष्यकार' कहा जाता है।
कृति-महाभाष्यम्
माहेश्वर सूत्र
- माहेश्वर सूत्र चतुर्दश (14) होते हैं।
- माहेश्वर:-महेश्वरस्य आगतः
महेश / शिव के डमरू से माहेश्वर सूत्र निकले थे, जिन्हें पाणिनि ने लिपिबद्ध किया।
- सूत्र की परिभाषा - जिसमें अल्प अक्षर होते हों, संशय वाली कोई बात न हो, सारवान होते हो, उन्हें सूत्र कहते हैं। सूत्र मुख्यतः छ: प्रकार के होते हैं -
1. संज्ञा सूत्र
2. परिभाषा सूत्र
3. विधि सूत्र
4. नियम सूत्र
5. अतिदेश सूत्र
6. अधिकार सूत्र
जैसे- ‘चुटू' सूत्र अल्प अक्षर वाला है, परन्तु इस सूत्र ने च वर्ग एवं ट वर्ग (कुल वर्ण-10) की इत्संज्ञा की है। इत्संज्ञा होने पर उस वर्ण का लोप हो जाता है। (तस्य लोपः)
माहेश्वर सूत्र- चतुर्दश
1. अ, इ, उ, ण 2. ऋ, लृ, क्
3. ए, ओ, ङ् 4. ऐ, औ, च्
माहेश्वर सूत्र 1-4 तक स्वरों का वर्णन है।
- अच्-स्वर ‘अचः स्वरा'
- अच् = 9 (नव)-अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ
- मूल स्वर / ‘अक् प्रत्याहार' = 5 (पञ्च) अ, इ, उ, ऋ, लृ
नोट:- ‘लृ' वर्ण दीर्घ नहीं होता है।
- दीर्घ स्वर = 8 – आ, ई, उ, ॠ, ए, ऐ, ओ, औ
- संयुक्त स्वर / ‘एच् प्रत्याहार' = 4 ए, ओ, ऐ, औ
- कुल स्वर - त्रयोदश (13) = अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ
- हल् / व्यंजन - 33 (त्रय:त्रिंशत्)
5. ह, य, व, र, ट् 6. ल, ण्
7. ञ, म, ङ, ण, न, म् 8. झ, भ, ञ्
9. घ, ढ, ध, ष् 10. ज, ब, ग, ड, द, श्
11. ख, फ, छ, ठ, थ, च, ट, त, व् 12. क, प, य्
13. श, ष, स, र् 14. ह, ल्
- माहेश्वर सूत्र 5-14 तक व्यंजनों का वर्णन है।
- स्पर्श वर्ण- पञ्चविंशति (25) ‘कादयोमावसाना स्पर्शा:’ - क से लेकर म तक कु, चु, टु, तु, पु में उकार की इत्संज्ञा होती है, इसलिए इन वर्णो को ‘उदित' वर्ण भी कहा जाता है।
कु- क वर्ग (क्, ख्, ग्, घ्, ड्)
चु- च वर्ग (च्, छ्, ज्, झ्, ञ्)
टु- ट वर्ग (ट्, ठ्, ड्, ढ्, ण्)
तु- त वर्ग (त्, थ्, द्, ध्, न्)
पु- प वर्ग (प्, फ्, ब्, भ्, म्)
- अन्तःस्थ वर्ण / ‘यण् प्रत्याहार' – 4 - य्, व्, र्, ल् (माहेश्वर सूत्र 5 व 6 में इनका वर्णन है)
- ऊष्म वर्ण / ‘शल् प्रत्याहार'- 4 - श्, ष्, स्, ह् (माहेश्वर सूत्र 13 और 14 में वर्णन है)
विशेष -
1. प्रत्याहार का निर्माण करते समय हलन्त वर्णो को नहीं गिना जाता है।
जैसे- अक् प्रत्याहार में अ, इ, उ, ऋ, लृ वर्ण आयेंगे। क् वर्ण नहीं आयेगा।
2. लघुसिद्धान्तकौमुदी (वरदराज आचार्य) के अनुसार प्रत्याहार 42 (द्विचत्वारिंशत्) होते हैं।
3. माहेश्वर सूत्रों में दो बार प्रयोग होने वाला वर्ण - ह।
4. माहेश्वर सूत्रों में अन्त में दो बार प्रयोग होने वाला वर्ण - ण्।
5. कुल वर्ण- 13 स्वर + 33 व्यंजन = 46 (षट्चत्वारिंशत्)
पाणिनीय शिक्षा के अनुसार वर्गों की संख्या 63/64 त्रयषष्टिः / चतुर्षष्टिः
पाणिनीय शिक्षा के अनुसार स्वरों की संख्या - 21/22
पाणिनीय शिक्षा के अनुसार व्यञ्जनों की संख्या - 42
मात्रा तीन प्रकार की होती है - 1. हृस्व 2. दीर्घ 3. प्लुत
स्वर-21/22 (एकविंशति/द्वाविंशति)
Varna vichar in sanskrit for reet
अ = 1x3 = 3 | हस्व | दीर्घ | प्लुत |
इ = 1x3 = 3 | हृस्व | दीर्घ | प्लुत |
उ = 1x3 = 3 | हृस्व | दीर्घ | प्लुत |
ऋ = 1x3 = 3 | हृस्व | दीर्घ | प्लुत |
लृ = 1 x 1/2 = 1/2 | हस्व |
| प्लुत |
ए = 1x2 = 2 |
| दीर्घ | प्लुत |
ओ = 1x 2 = 2 |
| दीर्घ | प्लुत |
ऐ = 1x2 = 2 |
| दीर्घ | प्लुत |
औ = 1x2 = 2 |
| दीर्घ | प्लुत |
प्रयत्न / यत्न
- प्रयत्न दो प्रकार के होते हैं
1. आभ्यन्तर प्रयत्न (5) 2. बाह्य प्रयत्न (11)
आभ्यन्तर प्रयत्न
- आभ्यन्तर प्रयत्न 5 प्रकार (पञ्च) का होता है।
(i) स्पृष्ट - स्पर्श वर्ण (25), क से म तक का अाभ्यन्तर प्रयत्न ‘स्पृष्ट’ होता है।
(ii) ईषत्स्पृष्ट - अन्त:स्थ वर्ण (यण्) य्, व्, र्, ल्।
(iii) ईषद््विवृत - ऊष्म वर्ण (शल्) श्, ष्, स्, ह्।
(iv) विवृत- सभी स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, लृ, ए, ऐ, ओ औ।
(v) संवृत- हृस्व ‘अ' का 'लौकिक प्रयोग दशा' में।
प्रश्न- यकार का अभ्यान्तर प्रयत्न क्या होगा? - ईषत्स्पृष्ट
प्रश्न- इकार का अभ्यान्तर प्रयत्न क्या होगा? - विवृत
प्रश्न- अकार का प्रक्रिया दशा में आभ्यन्तर प्रयत्न क्या होगा? - विवृत
प्रश्न- अकार का प्रयोग दशा में आभ्यन्तर प्रयत्न क्या होगा? - संवृत
बाह्य प्रयत्न
- बाह्य प्रयत्न 11 प्रकार (एकादश) का होता है।
(i) विवार / श्वांस / अघोष - (खर् प्रत्याहार/वर्ण) वर्ग का प्रथम, द्वितीय वर्ण, श्, ष्, स्, विसर्ग।
(ii) संवार / नाद / घोष - वर्ग का तीसरा, चौथा, पाँचवा वर्ण य्, व्, र्, ल्, ह्, अनुस्वार।
(iii) अल्पप्राण - वर्ग का पहला, तीसरा, पाँचवा वर्ण य्, व्, र्, ल् (यण् वर्ण)
(iv) महाप्राण - वर्ग का दूसरा, चौथा वर्ण श्, ष्, स्, ह् (शल् वर्ण)
(v) उदात्त / अनुदात्त / स्वरित - सभी स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ॠ, लृ, ए, ऐ, ओ औ।
संयुक्त व्यञ्जन
क्ष् - क् + ष् त्र् - त् + र्
ज्ञ् – ज् + ञ्
उच्चारण स्थान
- प्रत्येक वर्ण जहाँ से उत्पन्न होता है, वह उसका उच्चारण स्थान कहलाता है। सामान्यतः उच्चारण स्थान 7 (सप्त) होते हैं - कण्ठ, तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ, नासिका, जिह्वामूल। पाणिनीय शिक्षा के अनुसार उच्चारण स्थान 8 (अष्ट) होते हैं। आठवाँ उच्चारण स्थान उरस् है।
- दो उच्चारण स्थान वाले वर्णो की संख्या – 10 - ए, ऐ, ओ, औ, व, ङ, ञ, ण, न, म।
- एक उच्चारण स्थान वाले वर्णो की संख्या – 32
1. ‘अकुहविसर्जनीयानां कण्ठः' - अ/आ, क वर्ग (क, ख, ग, घ, ङ) ह, विसर्ग – कण्ठ
2. ‘इचुयशानां तालुः'- इ/ई, च वर्ग (च, छ, ज, झ, ञ) य, श (शिव)-तालु
3. ‘ऋटुरषाणां मूर्धाः'- ऋ/ ऋ, ट वर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण), र, ष - मूर्धा
4. ‘लृतुलसानां दन्ताः' – लृ, त वर्ग (त, थ, द, ध, न), ल, स (सत्य)-दन्त
5. ‘उपूपध्मानीयानामौष्ठो'- उ / ऊ, प वर्ग (प, फ, ब, भ, म), उपध्मानीय वर्ण- प, फ = ओष्ठ ( इस चिह्न को अर्द्धविसर्ग के नाम से जाना जाता है।)
6. ‘ञमङणनानां नासिका च'- ञ, म, ङ, ण, न - नासिका।
7. ‘एदैतोः कण्ठतालु'- ए, ऐ - कण्ठतालु
8. ‘ओदौतोः कष्ठोष्ठम्' - ओ, औ = कण्ठोष्ठ
9. ‘वकारस्य दन्तोष्ठम्' - व = दन्तोष्ठ (दन्त + ओष्ठ)
10. ‘जिह्वामूलीयस्य जिह्वामूलम्' - जिह्वामूलीय वर्ण क ख - जिह्वामूल
11. ‘नासिकाऽनुस्वारस्य' - अनुस्वार - नासिका
0 Comments
Thankyou