गणित में निदानात्मक परीक्षण एवं उपचारात्मक शिक्षण
गणित में निदानात्मक परीक्षण एवं उपचारात्मक शिक्षण
(Diagnostic and Remedial Teaching in Mathematics)
शिक्षक का मुख्य कार्य शिक्षार्थियों की अधिगम-गुणता को बढ़ाना है। यह तभी संभव है जब शिक्षक एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करें तथा शिक्षार्थी अधिगम की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लें। शिक्षण- अधिगम प्रक्रिया के दौरान शिक्षक को उन क्षेत्रों का निर्धारण करने और पहचानने की आवश्यकता होती है जिनमें शिक्षार्थी गलतियाँ करते हैं। यह शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया का एक संवेदनशील चरण है जिसका शिक्षकों को निदान करना होता है तथा शिक्षार्थियों में अधिगम की वांछित गुणात्मकता को सुनिश्चित करने के लिए उपचारात्मक शिक्षण की दृष्टि से शिक्षण सामग्री तैयार करनी होती है।
इस चरण में अध्यापक की भूमिका एक डॉक्टर जैसी होती है। डॉक्टर बीमारी की जाँच के लिए विभिन्न परीक्षणों द्वारा सभी आवश्यक उपाय करता है और तब रोग विशेष के लिए दवाई बताता है।
शिक्षा के प्रसंग में निदानात्मक परीक्षण की प्रक्रिया एक उपाय है और उपचारात्मक शिक्षण एक नुस्खा है। इसलिए प्रभावपूर्ण अधिगम को सुनिश्चित करने के लिए तथा शिक्षा की गुणात्मकता को सुधारने के लिए निदानात्मक परीक्षण और उपचारात्मक शिक्षण अत्यंत अनिवार्य है।
- निदानात्मक परीक्षण (Diagnostic Tests) - विद्यार्थी के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करने हेतु उसके व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाने के लिए ही शिक्षा का आयोजन किया जाता है। शिक्षा देने के इन प्रयत्नों में कई बार वांछित सफलता नहीं मिलती। साथ ही कई बार ऐसा भी होता है कि कोई छात्र विशेष इन प्रयत्नों से पूरी तरह लाभान्वित नहीं हो पाता। इसके फलस्वरूप या तो वह बार-बार फेल होता रहता है या फिर किसी-न-किसी प्रकार की व्यवहारजन्य समस्या से ग्रसित हो जाता है। ऐसी स्थिति में शिक्षक को ऐसे छात्रों के समस्यात्मक व्यवहार तथा शैक्षिक असफलता के मूल कारणों की खोज (निदान) करने की आवश्यकता महसूस होती है। छात्रों के शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में पीछे रहने के इन कारणों की जानकारी प्राप्त करने की प्रक्रिया ही निदानात्मक परीक्षण है।
- निदानात्मक परीक्षण का अर्थ - सामान्यतः किसी इकाई या प्रकरण को पूरा करने के बाद शिक्षक द्वारा शिक्षार्थियों की निष्पत्ति की जाँच के लिए परीक्षण किया जाता है। मूल्यांकन के बाद निष्कर्ष निकालते हैं और इससे पता लगता है कि कुछ शिक्षार्थियों ने बहुत अच्छा किया है, जबकि शिक्षार्थियों के एक विशेष वर्ग ने अपेक्षा से कम उपलब्धि हासिल की है। अब शिक्षक को छात्रों की इस निम्न निष्पत्ति या मंद अधिगम के कारणों को ढूंढना होता है। अवश्य ही इस निम्न निष्पत्ति के कुछ कारण होते हैं। अतः यह बहुत आवश्यक है कि उस क्षेत्र विशेष का निर्धारण किया जाए जहाँ शिक्षार्थियों को कठिनाई होती है या संकल्पना का पता लगाया जाए, जहाँ शिक्षार्थी गलती करते हैं। अधिगम कठिनाइयों के क्षेत्रों का पता लगाना, उन्हें पहचानना तथा उनके कारणों की खोज करना ही निदानात्मक परीक्षण कहलाता है।
जिस क्षेत्र में गलती होती है उसे पहचानने के बाद उन कारणों को खोजना आवश्यक होता है, जिनके कारण कोई विशेष बच्चा या शिक्षार्थियों का कोई समूह ठीक से उत्तर नहीं दे पाया है। इस चरण में शिक्षक को एक डॉक्टर की भूमिका निभानी होती है। यदि कोई रोगी, डॉक्टर के क्लिनिक में जाता है तो डॉक्टर स्वयं प्रेक्षित लक्षणों के आधार पर विभिन्न परीक्षण कराने का सुझाव देता है। रिपोर्ट़ों के आ जाने के बाद डॉक्टर रोग को पहचानने तथा निदान करने की स्थिति में होता है और तब वह रोग के लिए औषधि बताता है।
इसी प्रकार, एक शिक्षक को भी पहले उस क्षेत्र का पता लगाना और उसे पहचानना होता है, जिसमें त्रुटि होती है। शैक्षिक स्थितियों में इस प्रयोजन से अपनाई जाने वाली प्रक्रिया को निदानात्मक परीक्षण के नाम से जाना जाता है। हम यह भी कह सकते हैं कि निदानात्मक परीक्षण का आशय अधिगम की कठिनाइयों का विस्तृत अध्ययन है।
इस प्रकार निदानात्मक परीक्षण वे परीक्षण हैं जो इस बात का निदान (Diagnosis) करते हैं कि छात्र किन-किन परिस्थितियों में गलतियाँ करते हैं, उनकी त्रुटियाँ या गलतियाँ किस प्रकार की हैं तथा उनके क्या कारण हैं? आदि।
गणित शिक्षण में भी जब कोई छात्र या छात्र समूह गणित शिक्षण के अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रहा है एवं गणित की किसी शाखा या प्रकरण विशेष के अधिगम या अवधारणा एवं कौशल के उपार्जन में उन्हें कठिनाई हो रही हो, तब उसकी कठिनाई को पहचान कर उसके पीछे रहे कारणों का पता लगाना शिक्षक के लिए आवश्यक है। तभी वह उस विद्यार्थी या विद्यार्थी समूह की कठिनाई का निवारण कर उसे पुनः शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को पथ पर अग्रसर करने में सफल हो सकता है। इस प्रकार गणित विषय में बालकों की कठिनाइयों एवं कमजोरियों का पता लगाने के लिए जिन परीक्षणों का प्रयोग किया जाता है वे नैदानिक या निदानात्मक परीक्षण (या परीक्षाएँ) कहलाते हैं।
- निदानात्मक परीक्षण की परिभाषाएँ -
गुड के अनुसार, “निदान का अर्थ है, अधिगम संबंधी कठिनाइयों और कमियों के स्वरूप का निर्धारण करना।”
मरसैल के शब्दों में, “जिस शिक्षण में बालकों की विशिष्ट त्रुटियों का निदान करने का विशेष प्रयास किया जाता है, उसको बहुधा निदानात्मक परीक्षण या शैक्षिक निदान कहते हैं।”
योकम एवं सिम्पसन ने निदानात्मक परीक्षण को परिभाषित करते हुए लिखा है कि, “निदान किसी कठिनाई का उसके चिह्नों या लक्षणों से ज्ञान प्राप्त करने की कला का कार्य है। यह तथ्यों के परीक्षण पर आधारित कठिनाई का स्पष्टीकरण है।”
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि “गणित में प्रयुक्त निदानात्मक परीक्षणों से तात्पर्य एक ऐसे परीक्षण तथा मूल्यांकन कार्यक्रम से है जिसे गणित अध्यापक द्वारा किसी विद्यार्थी विशेष या समूह विशेष के विद्यार्थियों की गणित में अधिगम संबंधी कठिनाइयों तथा व्यवहारगत समस्याओं की वास्तविक प्रकृति तथा उसके पीछे छिपे हुए कारणों का पता लगाने और फिर उनके जरिए एक ऐसा उपचारात्मक कार्यक्रम तैयार करने के लिए काम में लाया जाता है जिससे उन्हें उन कठिनाइयों तथा समस्याओं से मुक्त होने में उचित सहायता की जा सके।”
निदानात्मक परीक्षण के उद्देश्य -
- गणित विषय की अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया में सुधार करना।
- अधिगम-अनुभव तथा अधिगम-प्रक्रिया के अवरोधक तत्त्वों को ढूँढ़ना एवं उपचारात्मक शिक्षण की व्यवस्था करना।
- पिछड़े बालकों की पहचान करना।
- गणित संबंधी विशिष्टताओं एवं कमजोरियों का पता लगाना।
- गणित के पाठयक्रम में परिवर्तन लाना तथा बालकेन्द्रित बनाना।
- मूल्यांकन प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने हेतु मूल्यांकन पद्धतियों में परिवर्तन करना।
- उपलब्धि परीक्षण हेतु परीक्षण पदों के प्रकार निर्धारित करने में सहायता देना।
- छात्रों की कमियों एवं अच्छाइयों के आधार पर शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन देना।
निदानात्मक परीक्षण के स्तर या सोपान-
- निदानात्मक परीक्षण में निम्न बातों की जानकारी प्राप्त करने हेतु कार्य किया जाता है-
- वे कौनसे शिक्षार्थी हैं जिनकी गणित में उपलब्धि-अपेक्षित स्तर से कम रही है एवं जिन्हें अब सहायता की आवश्यकता है।
- गलतियाँ किस/किन क्षेत्रों में हुई हैं? बालक गणित के किन क्षेत्रों में त्रुटियाँ कर रहे हैं?
- कठिनाई की प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करने के बाद यह ज्ञान किया जाता है कि त्रुटियों के मूल कारण क्या है? यह कार्य कुछ कठिन होता है। इसमें शिक्षक की तर्कशक्ति कार्य करती है।
- समस्या/कठिनाइयों के कारणों की जानकारी हो जाने के बाद इस बात पर विचार किया जाता है कि उन्हें दूर करने हेतु क्या उपचार किया जाए। उपचार की प्रविधि समस्या विशेष की प्रकृति पर निर्भर होती है।
- उपचारात्मक शिक्षण के उपरांत पुनः बालकों की उपलब्धि का मूल्यांकन किया जाता है कि उपचारात्मक शिक्षण का उनके व्यवहार एवं शैक्षिक ज्ञान पर कितना असर हुआ है। यदि उसमें कुछ कमी ज्ञात होती है तो पुनः निदानात्मक परीक्षण एवं उपचारात्मक शिक्षण की प्रक्रिया अपनाई जाती है।
निदानात्मक परीक्षण के उपर्युक्त सोपानों में से अंतिम दो का संबंध उपचारात्मक शिक्षण प्रक्रिया से है। निदानात्मक परीक्षण का उद्देश्य भी यही है कि बालकों की अधिगम संबंधी कमजोरियों का पता लगाना ताकि उन्हें दूर किया जा सके व उनका उपचार किया जा सके।
गणित में निदानात्मक परीक्षणों की आवश्यकता एवं महत्त्व-
- शैक्षिक निदान की आवश्यकता केवल समस्याग्रस्त बालकों को ही नहीं अपितु सामान्य बालकों को भी होती है।
- निदानात्मक परीक्षाओं की आवश्यकता बालकों की विषयगत व विशेष इकाई में कठिनाई स्तर जानने में पड़ती है।
- कठिनाई उत्पन्न करने वाले प्रश्नों की विषय-वस्तु का विश्लेषण करने हेतु इसकी आवश्यकता पड़ती है।
- विषयवस्तु के विश्लेषण के अतिरिक्त मानसिक प्रक्रिया के विश्लेषण में भी शैक्षिक निदान की आवश्यकता होती है।
- शैक्षिक निदान तथ्य का भी पता लगाता है कि छात्र किन-किन मानसिक प्रक्रियाओं को सफलतापूर्वक सम्पादित नहीं कर पा रहा है।
- शैक्षिक निदान की आवश्यकता अध्यापक को पठन-पाठन की स्थितियों को प्रभावशाली बनाने हेतु होती हैं।
- शैक्षिक निदान द्वारा बालक की वांछनीय एवं वास्तविक उपलब्धियों की दूरी को समाप्त किया जा सकता है।
- यह स्कूल में अपव्यय व अवरोधन के कारणों को जानने का अच्छा साधन है। बालक विद्यालय क्यों छोड़ते हैं तथा जिस उद्देश्य हेतु उन्होंने प्रवेश लिया था वह पूरा हुआ या नहीं। इनके कारणों का पता लगाना।
- निदानात्मक परीक्षण अच्छे निर्देशन, परामर्श एवं शिक्षण हेतु महत्त्वपूर्ण है।
- यह छात्रों की कमियों को दूर करने के लिए उपचारात्मक शिक्षण की व्यवस्था करने में सहायक है।
- शैक्षिक निदान मूल्यांकन प्रक्रिया को अत्यधिक प्रभावित करता है।
- किसी विशेष क्षेत्र में बालकों की कठिनाई और कमजोरी दूर करने का प्रयास किया जाता है।
निदानात्मक परीक्षण की प्रकृति और प्रयोजन -
- यदि हम गणितीय उपलब्धियों पर गुणात्मक और परिमाणात्मक दृष्टियों से विचार करे तो हम चार मुख्य बिंदुओं की पहचान कर सकते हैं।
(1) परिशुद्धता, (2) लेखन गति, (3) कार्य विधियाँ, (4) गणितीय प्रक्रियाओं में दक्षता प्राप्ति की सीमा।
- यह स्पष्ट है कि शिक्षक को उपर्युक्त चारों दिशाओं में से प्रत्येक में शिक्षार्थी की योग्यता को दर्शाने वाले कक्षा कार्य अथवा साप्ताहिक या मासिक परीक्षणों द्वारा प्रतिपुष्टि प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। परंतु यह शिक्षण प्रयोजनों के लिए पर्याप्त नहीं है। विशेषकर उन शिक्षार्थियों के लिए जो धीमी गति से सीखते हैं। शिक्षार्थियों के इस समूह के संदर्भ में अपेक्षित है कि शिक्षक के पास उनकी निष्पतियों का अधिक विश्लेषणात्मक आंकलन हो।
- निदानात्मक परीक्षण की प्रकृति विश्लेषणात्मक होती है, जिसमें शिक्षक को शिक्षार्थियों के निष्पादन पर इसलिए गौर करना होता है कि वह यह जाँच सके कि शिक्षार्थी किसी संकल्पना या दक्षता विशेष को क्यों नहीं सीख सके या उसमें पूर्णदक्षता क्यों नहीं प्राप्त कर सके। शिक्षक को प्रत्येक शिक्षार्थी की विशिष्ट प्रकार की त्रुटियों का सही-सही पता लगाना चाहिए। इस विश्लेषण का आधार निष्पादन-आंकड़ें होते हैं, न कि शिक्षक की सामान्य राय। प्रत्येक शिक्षार्थी, शिक्षार्थियों के समूह, प्रत्येक संकल्पना/दक्षता तथा प्रत्येक प्रश्न के संदर्भ में इसका निर्वाचन किया जा सकता है।
- शिक्षक शिक्षार्थियों के निष्पादन के संदर्भ में इस प्रकार की छान-बीन क्यों करे? इसका सीधा-सा उत्तर यह है कि यह अधिगम की गुणता (पूर्णदक्षता स्तर पर) को सुनिश्चित करना चाहता है और यह जानना चाहता है कि वांछनीय परिणाम प्राप्त करने के लिए क्या विशिष्ट कार्यवाही करनी चाहिए। अतः निदानात्मक परीक्षण का मुख्य प्रयोजन शिक्षार्थियों की शिक्षण कठिनाइयों को ढूँढना है ताकि वे सुधारात्मक उपाय, जिसे उपचारात्मक शिक्षण कहा जाता है, अपनाए जा सकें।
- निदानात्मक परीक्षाओं में निश्चित समय नहीं दिया जाता है। आवश्यकतानुसार ये एक से अधिक बार भी आयोजित की जा सकती हैं। निदानात्मक परीक्षाओं में बालकों को अंक प्रदान नहीं किये जाते हैं। इसमें यह ज्ञात किया जाता है कि कौन-कौन से प्रश्न त्रुटिपूर्ण हैं अथवा बालकों ने हल ही नहीं किये हैं।
निदानात्मक परीक्षण के निर्माण की प्रक्रिया - गणित में बालकों की कमजोरियों एवं उनके कारणों का पता लगाने हेतु एक गणित शिक्षक को निदानात्मक परीक्षण का निर्माण करना होता है। वैसे कुछ मनोवैज्ञानिकों द्वारा तैयार प्रमाणित निदानात्मक परीक्षण बाजार में प्रकाशित हो चुके हैं, जिनका प्रयोग शिक्षक द्वारा अपने विद्यार्थियों की निष्पत्ति में कमियों एवं उनके कारणों की छानबीन एवं जानकारी करने के लिए किया जा सकता है। इसके अलावा गणित अध्यापक स्वयं भी निदानात्मक परीक्षणों का निर्माण कर सकता है। इस परीक्षण के निर्माण का कार्य निम्न तीन चरणों में सम्पन्न किया जाता है-
निदानात्मक परीक्षण के निर्माण हेतु योजना बनाना-
निदानात्मक परीक्षण का निर्माण योजनाबद्ध रूप में किया जाना बेहतर होता है। इस हेतु परीक्षण का निर्माण करने की योजना बनाते समय निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए-
- बालकों की अधिगम कठिनाइयों एवं कमजोरियों से संबंधित क्षेत्रों का ज्ञान प्राप्त करना।
- छात्रों की कठिनाइयों के क्षेत्र को और अधिक सीमित करना।
- विषय-वस्तु का ठीक प्रकार से विश्लेषण करना।
- परीक्षण प्रश्नों का निर्धारण करना। इसमें लघुत्तरात्मक एवं अतिलघुत्तरात्मक प्रश्नों एवं वस्तुनिष्ठ प्रश्नों को प्राथमिकता देनी चाहिए।
- निदानात्मक परीक्षण लेने संबंधी निर्णय जैसे परीक्षण की समयावधि (Time Limit), प्रश्नों की अंकण व्यवस्था, प्रश्नों को हल करने संबंधी क्या-क्या निर्देश दिये जाएँगे आदि के संबंध में निर्णय।
निदानात्मक परीक्षण का निर्माण -
निदानात्मक परीक्षण की योजना बनाने के पश्चात् उसमें लिए गये निर्णयों एवं निर्धारित मानदण्डों के अनुसार निदानात्मक परीक्षण के निर्माण हेतु उचित प्रश्नों का चयन किया जाता है। प्रश्नों का चयन निम्न तथ्यों पर आधारित होना चाहिए-
- उप-इकाई या अवधारणा विशेष की विषय-वस्तु की प्रकृति।
- उप-इकाई या अवधारणा विशेष के अधिगम हेतु आवश्यक प्रारंभिक व्यवहार (पूर्व ज्ञान, कौशल आदि के संदर्भ में)
- उप-इकाई या अवधारणा विशेष के अधिगम के पश्चात् विद्यार्थी का अपेक्षित व्यवहार (अर्जित ज्ञान, कौशल, अनुप्रयोग आदि के संदर्भ में)।
निदानात्मक परीक्षण का आयोजन एवं उसका विश्लेषण व व्याख्या -
उपर्युक्त तरीके से निर्मित निदानात्मक परीक्षण के आधार पर लक्षित विद्यार्थी या विद्यार्थी समूह की परीक्षा ली जाती है। इसके साथ परीक्षण देने से संबंधित सभी आवश्यक दिशा-निर्देश छात्रों को अच्छी तरह से समझा देने चाहिए।
परीक्षण के आयोजन के पश्चात् छात्रों से एकत्रित किये गये उत्तर-पत्रों एवं प्रश्न-पत्रों का अंकन एवं विश्लेषण किया जाता है। विश्लेषण के दौरान उनकी त्रुटियों का विश्लेषण किया जाता है। इसके आधार पर ही यह ज्ञात हो पाता है कि बालक की कठिनाइयाँ एवं कमजोरियाँ क्या हैं तथा उनके मूल कारण क्या है? इन सबका ज्ञान प्राप्त करने के बाद उन कमजोरियों के उपचार हेतु उपचारात्मक शिक्षण की व्यवस्था की जाती है।
- उपचारात्मक शिक्षण (Remedial Teaching in Mathematics) - निदानात्मक परीक्षण के प्राप्त निष्कर्ष़ों के आधार पर ज्ञात विद्यार्थियों की कमजोरियों एवं त्रुटियों को दूर कर उन्हें समुचित स्तर के अधिगम की संप्राप्ति हेतु सक्षम बनाने के लिए उपचारात्मक शिक्षण प्रक्रिया आयोजित की जाती है। इस प्रकार जहाँ निदान शिक्षार्थियों की कठिनाइयों तथा उनके कारणों को खोजने की प्रक्रिया है, वहीं तत्संबंधी अनुवर्ती कार्य़ों से शिक्षार्थियों को अपनी कमियों को दूर करने में सहायता मिलती है। इस सोपान को सामान्यतः उपचारात्मक शिक्षण कहा जाता है। इसके लिए शिक्षक को ऐसी सामग्री तैयार करने या प्रबंध करने में कुशल होना चाहिए जिसका उपयोग सुधारात्मक अनुदेशन में किया जा सके और जिससे शिक्षण की गुणात्मक बढ़ाई जा सके।
- इस प्रकार उपचारात्मक शिक्षण ऐसा शिक्षण या अनुदेशन कार्य है जिसे विद्यार्थी विशेष या विद्यार्थियों के समूह विशेष की उन समान्य या विशिष्ट अधिगम कमजोरियों तथा कठिनाइयों का निवारण करने हेतु प्रयुक्त किया जाता है जिनका ज्ञान किसी निदानात्मक परीक्षण से प्राप्त किया गया हो। इस प्रकार निदानात्मक परीक्षण उपचारात्मक शिक्षण की पूर्वगामी क्रिया है और उपचारात्मक शिक्षण निदानात्मक परीक्षण की पश्चातवर्ती (परवर्ती) क्रिया है। क्रमबद्ध परीक्षण के आधार पर किया गया निदान, उपचारात्मक शिक्षण को एक निश्चित दिशा प्रदान करता है।
सामग्री का चयन-
उपचारात्मक शिक्षण हेतु उपयुक्त शैक्षणिक सामग्री का चयन करते समय निम्नलिखित बिंदुओं को ध्यान में रखना चाहिए-
- सुधारात्मक सामग्री की रचना विद्यार्थियों की वैयक्तिक कठिनाइयों को दूर करने के लिए की जानी चाहिए।
- शिक्षक को निरीक्षण, साक्षात्कार तथा निदानात्मक परीक्षण के द्वारा धीमी गति से सीखने वालों के काम का विश्लेषण करना होगा। इन तीनों को भली प्रकार ध्यान में रखने से हमें यह निर्णय लेने में सहायता मिल सकती है कि किस प्रकार की सुधारात्मक सामग्री तैयार करनी होगी और क्या वह सामग्री शिक्षार्थी की विशिष्ट कठिनाइयों को दूर करने के लिए पर्याप्त होगी।
- सुधारात्मक सामग्री शिक्षार्थियों को स्वतंत्र रूप से कार्य करने का अवसर देने वाली होनी चाहिए। सामग्री के साथ दिए जाने वाले निर्देश सरलतापूर्वक पठनीय तथा बोधगम्य हों।
- सुधारात्मक सामग्री शिक्षार्थियों को अपनी गति से प्रगति करने का अवसर देने वाली हो।
- सामग्री शिक्षार्थियों की प्रगति के क्रमबद्ध अभिलेखन को प्रोत्साहित करती हो।
शैक्षणिक सामग्री को चुनते तथा प्रयोग करते समय क्षेत्र विशेष में शिक्षार्थी की वैयक्तिक आवश्यकता सबसे महत्त्वपूर्ण बात है। शिक्षक को व्यक्तिगत स्तर पर व्यवहार करना होगा। भिन्न-भिन्न प्रकार के शिक्षार्थियों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की कार्यप्रणालियों को अपनाना होगा। शिक्षार्थी-शिक्षार्थी अंतः क्रिया और शिक्षार्थी-सामग्री अंतक्रिया जैसे अंतःक्रिया के दूसरे प्रकारों का भी उपयोग करना होगा। इसके अतिरिक्त उचित शैक्षणिक सामग्री का उपयोग करते हुए परंपरागत शिक्षक-शिक्षार्थी अंतःक्रिया को भी प्रयोग में लाना होगा।
- जिस प्रकार का निदान होता है, उपचार भी ठीक उसी के अनुसार किया जाना चाहिए। इस मूल मान्यता का अनुसरण करते हुए गणित में हम संभावित उपचारात्मक शिक्षण उपायों के बारे में कुछ निम्न धारणाएँ बना सकते हैं-
- अगर कक्षा के सभी या अधिकांश विद्यार्थी किसी एक प्रकार की अधिगम कठिनाई या कमजोरी का अनुभव कर रहे हैं तो उसके निवारण हेतु एक साझा उपचारात्मक कार्यक्रम अपनाया जा सकता है। इस कार्य हेतु कठिनाई तथा कमजोरी जिस क्षेत्र या प्रकरण विशेष से संबंधित है उस प्रकरण या अधिगम विशेष के पुनः शिक्षण-अधिगम हेतु विशेष अतिरिक्त कक्षायें लगाई जा सकती हैं तथा उसके शिक्षण हेतु अन्य उपयोगी शिक्षण विधियों, दृश्य-श्रव्य साधनों तथा शिक्षण व्यूह रचनाओं, अभ्यास कार्य, प्रयोगात्मक कार्य आदि का सहारा लिया जा सकता है।
- अगर निदान की गई कठिनाई या कमजोरी ऐसी है जिसे विद्यार्थी विशेष द्वारा ही अनुभव किया जा रहा है तब उपचारात्मक उपाय भी वैयक्तिक और विशिष्ट ही होंगे। जहाँ तक गणित की बात है, यह एक क्रमिक रूप से विकसित विषय है, यहाँ प्रत्येक प्रकरण (Topic) शिक्षण- अधिगम हेतु अपने से पहले पढ़ाए हुए प्रकरणों के ऊपर निर्भर करता है तथा आगे बढ़ाए जाने वाले प्रकरणों के लिए आधारभूमि तैयार करता है इस तरह कोई विद्यार्थी किसी प्रकरण विशेष में इसलिए किसी अधिगम कठिनाई का अनुभव कर रहा है, क्योंकि इसे पढ़ने के लिए जो पूर्व ज्ञान तथा अधिगम क्षमताएँ उसे चाहिए, वे उसके पास नहीं हैं, तो इसका एकमात्र बेहतर इलाज यही है कि उसे यह बुनियादी आधार प्रदान कर दिया जाए। उसकी पुरानी कमजोरी जो विषय विशेष के अर्जन में रह गई है, उसे दूर कर दिया जाए। इस कार्य हेतु इस कमजोरी के निवारण के लिए व्यक्तिगत रूप से उसे जो भी शिक्षण चाहिए, वह उपयुक्त विधियों तथा तकनीकों से प्रदान करना ही यहाँ उसके लिए उपचारात्मक शिक्षण का आयोजन माना जाएगा।
- अगर निदान की गई कठिनाई या कमजोरी ऐसी नहीं है जो उसके पूर्व ज्ञान तथा पिछली पढ़ाई हुई बातों को अच्छी तरह ग्रहण करने से संबंधित हो तब उसके कारण अवश्य ही वर्तमान में किए जाने वाले शिक्षण-अधिगम कार्यक्रम में छिपे होंगे। निदानात्मक परीक्षण के परिणाम तथा विद्यार्थी विशेष द्वारा की जाने वाली अधिगम त्रुटियों के विश्लेषण से ही अब यह मालूम पड़ेगा कि उसके द्वारा विषय या प्रकरण विशेष के अधिगम के संदर्भ में किस प्रकार की कठिनाई या कमजोरी का अनुभव किया जा रहा है तथा उसके पीछे कौन-से संभावित कारण हो सकते हैं। इस प्रकार के निदान के आधार पर ही उसके लिए विशिष्ट उपचारात्मक शिक्षण के आयोजन का नियोजन किया जा सकता है।
- कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जो भी कठिनाइयाँ तथा कमजोरियाँ गणित के किसी भी प्रकरण या अध्ययन क्षेत्र में विद्यार्थी अनुभव कर रहे हों, उनके मूल में शारीरिक तथा संवेगात्मक व्यवहार संबंधी कारण विराजमान हों। इस प्रकार की कुछ परिस्थितियाँ निम्न प्रकार की हो सकती है-
विद्यार्थी अपने खराब स्वास्थ्य, बीमारी तथा शारीरिक या मानसिक अपंगता की वजह से गणित के अधिगम में कठिनाई का अनुभव कर सकता है और पढ़ाई में कमजोर रह सकता है।
कोई भी विद्यार्थी विशेष या पूरा समूह विद्यालय में न मिलने वाली वांछित शैक्षिक सुविधाओं तथा उचित शिक्षण-अधिगम परिस्थितियों के कारण गणित के अधिगम अर्जन में कठिनाई तथा अक्षमता का प्रदर्शन कर सकता है।
विद्यार्थी विशुद्ध संवेगात्मक कारणों की वजह से भी अधिगम पथ पर आगे बढ़ने में काफी कठिनाई का अनुभव कर सकता है और फलस्वरूप हम उसे गणित विषय के अधिगम के संदर्भ में गहन अधिगम कठिनाइयों, कमजोरियों तथा अक्षमताओं से घिरा हुआ महसूस करते हैं। कई बार अध्यापक या माता-पिता द्वारा प्रदत्त एक साधारण-सी फटकार या लताड़ विद्यार्थी को बौद्धिक तथा संवेगात्मक रूप से नितांत क्रियाशून्य तथा अपाहिज-सा बना डालती है।
- गणित में अनुभव की जाने वाली अधिगम कठिनाइयों, कमजोरियों तथा पिछड़ेपन के लिए इस तरह बहुत से मामलों में व्यवहारात्मक और संवेगात्मक कारणों एवं परिस्थितियों को काफी हद तक जिम्मेदार माना जाता है। कई बार इस प्रकार की व्यवहारात्मक तथा संवेगात्मक समस्याएँ अध्यापक के व्यवहार तथा विद्यालय में उपस्थित कारणों से पैदा नहीं होती, बल्कि उनके लिए घर और परिवार का वातावरण, माता-पिता के द्वारा बालकों के लालन-पालन में कमी तथा उनके द्वारा किया गया अनुचित एवं अवांछित व्यवहार प्रतिक्रियास्वरूप विद्यार्थियों को ऐसे व्यवहार की ओर धकेल देता है कि वे गणित विषय के अधिगम में कठिनाई तथा अक्षमता का अनुभव करने लगते हैं।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि कोई बालक विशेषतः गणित के अधिगम में कठिनाई, कमजोरी या अक्षमता का क्यों अनुभव कर रहा है, इसके पीछे न केवल ज्ञानात्मक व्यवहार क्षेत्र (Congnitive domains) के अध्ययन और अध्यापन संबंधी कारण ही हो सकते हैं, बल्कि क्रियात्मक तथा भावात्मक व्यवहार क्षेत्र की भी ऐसी व्यवहार, स्वास्थ्य तथा वातावरणजन्य समस्याएँ हो सकती हैं जिनकी वजह से विद्यार्थी गणित की किसी निदानात्मक परीक्षण परिणामों में निराशाजनक प्रदर्शन कर उपचारात्मक शिक्षण की माँग कर सकता है। कई बाद विद्यार्थी की गणित के अध्ययन संबंधी ये कठिनाइयाँ तथा अक्षमताएँ किसी एक विशेष कारण का प्रतिफल होती हैं तो कई बार एक से अधिक कारणों के द्वारा यह विकास को प्राप्त होती हैं। इसलिए हमें चाहिए कि जब भी किसी विद्यार्थी की गणित संबंधी कमजोरियों, कठिनाइयों तथा अक्षमताओं के लिए उपचारात्मक शिक्षण के नियोजन की बात सोचें तो समस्या को उसके समग्र रूप में निवारण हेतु कमद उठाएँ। घर-परिवार के वातावरण, माता पिता तथा अन्य परिजनों का व्यवहार, गणित अध्यापक का शिक्षण और शिक्षक व्यवहार, विद्यालय का शिक्षण-अधिगम वातावरण, निर्देशन एवं परामर्शदाताओं की सलाह, उपचारात्मक शिक्षण कार्यक्रम का वैयक्तिक तथा सामूहिक स्तर पर उचित आयोजन तथा समयानुसार संशोधन आदि सारी बातों का एक अच्छे उपचारात्मक शिक्षण के नियोजन तथा कार्यान्वयन में पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए ताकि विद्यार्थियों को उनकी अपनी वैयक्तिक तथा सामूहिक अधिगम कठिनाइयों तथा कमजोरियों को दूर करने हेतु वांछित वातावरण तथा उचित मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे और वे पुनः अपने स्वाभाविक रूप में गणित के अध्ययन में रुचि लेकर अधिगम पथ पर ठीक तरह आगे बढ़ने के काबिल हो जाएँ।
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